- चन्द्रभूषण वर्मा
पूरे देश में अब मानसून की विदाई होने वाली है। कहीं-कहीं तो इसकी विदाई शुरू भी चुकी है। लेकिन इस बीच बीते दिनों सिक्किम सिक्किम में बादल फटने से तीस्ता नदी में बाढ़ आ गई है। जिसके चलते नदी में आए उफान की वजह से कई जगहों पर सड़कें भी टूट गईं हैं। साथ ही 14 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। नदी के बढ़े जलस्तर की वजह से सेना के 20 से अधिक जवान भी लापता बताए जा रहे हैं। तीस्ता नदी में आए बाढ़ की वजह से एनएच 10 का एक बड़ा हिस्सा भी टूट गया है।
आपको ज्ञात ही होगा इससे पहले जुलाई महीने में देश की राजधानी में यमुना के पानी ने काफी मुश्किलें खड़ी की थी। वजह है यमुना का जल स्तर पिछले 45 साल के रिकॉर्ड को तोड़ रहा है। जुलाई महीने में यमुना का जल स्तर 207.55 मीटर तक पहुंच गया था, जबकि दिल्ली में यमुना के खतरे का निशान 205.33 मीटर ही है। निस्संदेह, यह दिल्ली वालों के लिये अच्छी खबर नहीं है। अब जब यमुना का पानी रिंग रोड व कश्मीरी गेट स्थित आईएसबीटी के निकट सड़कों तक पर दस्तक देने लगा है, तो दिल्ली सरकार के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभर आई हैं। इससे पहले भी वर्ष 1978 में जब यमुना का जल स्तर 207.49 हुआ तो दिल्ली को भारी बाढ़ का सामना करना पड़ा था। वर्ष 2010 में यमुना का जल स्तर 207.11 व वर्ष 2013 में जल स्तर 207.32 मीटर होने पर भी दिल्ली को बाढ़ का सामना करना पड़ा था। यमुना का पानी नोएडा-दिल्ली लिंक रोड पहुंचने से चिंता बढ़ गई थी।
देश में कभी भूकंप, कभी सुनामी, जैसी प्राकृतिक आपदाएं लगातार आ रही हैं, तो कभी बाढ़ से जनमानस प्रभावित हो रहे हैं। जिसके चलते सैकड़ों-हजारों लोग असमय काल के गाल में समा जाते हैं। ये तो तय है जब तक मानव भी प्रकृति से छेड़छाड़ करने से बाज नहीं आते जब प्रकृति अपना बदला लेती है तब लोगों को होश आता समय-समय पर भीषण त्रासदियां होती रहती है मगर हम आपदाओं से कोई सबक नहीं सीखते। हर त्रासदी के बाद बचाव पर चर्चा होती है मगर कुछ दिनो बाद जब जीवन पटरी पर चलने लग जाता है तो इन बातों को भूला दिया जाता है। अगर बीती त्रासदियों से सबक सीखा जाए तो आने वाले भविष्य को सुरक्षित कर किया जा सकता है।
प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम हमारे आसपास दरकते पहाड़ों को भी देखा जा सकता है। हमने जीवन में जल्दी-जल्दी सब कुछ हासिल करने के मोह में उन परंपरागत तौर-तरीकों को नजरअंदाज किया, जो पहाड़ों में सड़क बनाने में इस्तेमाल किये जाते थे। जिसमें ध्यान रखा जाता था कि पहाड़ के आधार को क्षति न पहुंचे। लेकिन अब फोर-लेन हाईवे बनाने के प्रलोभन में ऐसे तमाम उपायों को नजरअंदाज किया गया। अपेक्षाकृत नये हिमालयी पहाड़ों पर बसे हिमाचल व उत्तराखंड के पहाड़ फोर-लेन सड़कों का दबाव सहन करने को तैयार नहीं हैं। पहले सड़कें लंबे घुमाव के साथ तैयार की जाती ताकि पहाड़ के अस्तित्व को खतरा न पहुंचे।
लेकिन अब दावे किये जा रहे हैं कि सफर कुछ ही घंटों में! मगर ये घंटे कम करने के उपक्रम की कीमत स्थानीय लोगों व पारिस्थितिकीय तंत्र को चुकानी पड़ रही है। पहाड़ों को काटने के साथ पेड़ों का कटान तेजी से हुआ है। दरअसल, अतीत में हमारे पूर्वज मकानों का निर्माण पहाड़ों की तलहटी और समतल इलाकों में किया करते थे। लेकिन हाल के वर्षों में खड़ी चढ़ाई वाले पहाड़ों को काटकर बहुमंजिला इमारतों व होटलों का निर्माण अंधाधुंध हुआ है। इस बोझ को सहन न कर सकने वाले पहाड़ों में कालांतर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं।
दरअसल, हम जितनी तेजी से अपने सुख-सुविधाओं के लिए प्रकृति का दोहन कर रहे हैं, उसकी अपेक्षा ना हम उतने ही वृक्षारोपण कर पा रहे हैं ना ही प्रकृति के दोहन से उत्पन्न परिस्थितियों के प्रति अपनी सतर्कता ही दिखा रहे हैं। हमें याद रखना चाहिए कि भवन निर्माण हो या सड़कों का निर्माण, पहाड़ों को कोई शार्टकट रास्ता स्वीकार नहीं है। उसकी कीमत हमें तबाही के रूप में चुकानी होगी।
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