बिरसा मुंडा एक युवा स्वतंतत्रा सेनानी, धार्मिक सुधारक और मुंडा समुदाय के नेता थे, जिनकी सक्रियता की भावना 19 वीं सदी के अंत में लोकप्रिय हो गई। बिरसा ने उलुगान या द ग्रेट टयूमल्ट नामक आंदोलन शुरू किया। उस दौरान लोग उन्हे “धरती अब्बा” कहते थे जिसके कारण उन्हे “धरती का पिता” के नाम से संबोधित किया गया। इन्होंने अंग्रेजी मिशनरियों और उनकी धर्मांतरण गतिविधियों के खिलाफ एक बड़ा धार्मिक आंदोलन खड़ा किया। उन्होंने मुख्य रूप से मुंडा और ओंरांव आदिवासी समुदाय के लोंगों की मदद से ईसाई मिशनरी की धार्मिक रूपांतरण गतिविधियों के खिलाफ विद्रोह किया। भारत के आदिवासी आंदोलनों के महान नायक बिरसा मुंडा को आज भी न केवल आदिवासी लोगों के बीच बल्कि पूरे संसार में संघर्ष का नेता माना जाता हैं। “धरती का पिता” “धरती अब्बा” के नाम से जाने वाले बिरसा मुंडा को आदिवासी लोगों के बीच एक देवता के रूप में पूजा जाता हैं। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद हुए प्रसिद्ध आदिवासी विद्रोहों में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए विद्रोह का महत्वपूर्ण स्थान हैं। बिरसा मुंडा ने काफी कम उम्र में ही दुनिया को अलविदा कह दिया था. लेकिन इतने कम उम्र में ही उनके शौर्य और पराक्रम की बदौलत उनको झारखंड समेत पूरे देश में भगवान का दर्जा दिया जाता है। उन्होंने काफी छोटी उम्र में ही जनजातियों के अधिकारों और देश की आजादी में अतुलनीय भूमिका निभाई थी।
भेड़ चराने से लेकर क्रांति तक का सफर
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को झारखंड के उलिहातु में एक गरीबी और कठिनाई से जूझ रहे परिवार में हुआ था। इनके माता-पिता दोनों दूसरे गांव में मजदूरी का काम करते थे और इनके देखभाल के लिए इनको मामा के पास भेज दिया था। वहां उन्होंने भेड़ चराने के साथ गणित और अक्षर ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। वे छोटा नागपुर पठार की मुंडा जनजाति के एक प्रमुख आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक नेता और लोक नायक थे और भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का विरोध करने वाले एक महान व्यक्ति थे। कुछ समय के बाद इनका दाखिला एक मिशनरी स्कूल में हुआ। इनका परिवार ईसाई धर्म स्वीकार कर चुका था और इनके पिता एक धर्म प्रचारक भी बन गए थे। बिरसा मुंडा को भी ईसाई धर्म में शामिल कर लिया गया और इनका नाम रखा गया दाऊद मुंडा। कुछ समय बाद इनका संपर्क एक ईसाई धर्म प्रचारक से हुई और बात-बात में उन्होंने बिरसा से कुछ ऐसा कहा जो इनको बुरा लगा। इसके बाद बिरसा ने वापस आदिवासी तौर तरीकों में लौटने का मन बनाया और उन्होंने मुंडा समुदाय के लोगों को संगठित करके जनजाति समाज में सुधारों का काम किया। इन्होंने राजनीतिक शोषण के विरुद्ध लोगों को जागरूक किया। इस तरह साल 1894 में उन्होंने पहली बार आंदोलन में कदम रखा।

आदिवासी अधिकारों के लिए शुरू किया आंदोलन
साल 1894 में बिरसा मुंडा सरदार आंदोलन में शामिल हुए जिसका उद्देश्य आदिवासियों की ज़मीन और वन संबंधी अधिकारों की मांग करना था। आंदोलन के दौरान उनको लगा कि इस आंदोलन को न तो ईसाईयों की तरफ से समर्थन किया जा रहा है और न ही जनजातियों की तरफ से। इससे उन्होंने एक नए आध्यात्मिक संगठन ‘बिरसाइत’को शुरू किया, इसका मुख्य काम जनजातियों को जागरूक करना था। 1894 में छोटा नागपुर में मानसून की विफलता के कारण भंयकर अकाल और महामारी फैली। बिरसा ने पूरी निष्ठा से अपने लोगों की सेवा की। आम जनता का बिरसा में बहुत गहरा विश्वास था, इससे बिरसा को अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद मिली। उन्हें सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। लोगों को हिंसा और ड्रग्स से दूर रहने की सलाह दी।
अबुआ दिशोम अबुआ राज का
1895 में बिरसा ने अग्रेंजों द्वारा थोपी गई जमींदारी व्यवस्था और राजस्व व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल भूमि का युद्ध छेड़ दिया। आदिवासी स्वाभिमान, स्वतंत्रता और संस्कृति को बचाने का संघर्ष था। बिरसा ने “अबुआ दिशोम अबुआ राज” यानि “हमारा देश, हमारा राज” का नारा दिया। देखते ही देखते सभी आदिवासी, जंगल पर दावेदारी के लिए इकट्ठे हो गये। अग्रेंजी सरकार के पांव उखड़ने लगे और भ्रष्ट जमींदार व पूंजीवादी बिरसा के नाम से भी कांपते थे। ब्रिटिश सरकार ने बिरसा मुंडा के उलगुलान को दबाने का हर संभव प्रयास किया, लेकिन वे आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के सामने विफल रहे। 1897 और 1900 के बीच आदिवासियों और अग्रेंजों के बीच लड़ाई हुई, लेकिन हर बार ब्रिटिश सरकार पीछे हट गई। ब्रिटिश सरकार हिल चुकी थी 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयाँ हुईं; पर हर बार अंग्रेजी सरकार को नाकामी मिली। इस क्रम में जनवरी 1900 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे। कहते हैं कि इस नरसंहार से डोंबारी पहाड़ खून से रंग गई थी। लाशें बिछ गई थीं और शहीदों के खून से डोंबारी पहाड़ के पास स्थित तजना नदी का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन बिरसा मुंडा उनके हाथ नहीं आए। अंग्रेज़ो ने बिरसा को 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर से गिरफ़्तार कर रांची में बनी जेल में डाल दिया और कारावास के दौरान ही बिरसा मुंडा की मृत्यु हो गयी। अफवाओं के गलियारों में अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा मीठा ज़हर देकर बिरसा मुंडा को मारने की बात सामने आती है, लेकिन रिकॉर्ड के अनुसार उनकी मृत्यु का कारण हैज़ा बताया गया और 9 जून 1900 को ये वीर शहादत को प्राप्त हो गया।
मानने लगे बिरसा को भगवान
बिरसा मुंडा को न सिर्फ झारखंड बल्कि देश के कई हिस्सों में भगवान का दर्जा दिया जाता है। उन्होंने बिरसाइत धर्म की स्थापना की, इसमें पहली बार उनके द्वारा 12 शिष्यों को इस धर्म के प्रचार की जिम्मेदारी दी गई। इस दौरान उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य सोमा मुंडा को धर्म-पुस्तक सौंपी। इस तरह बताया जाता है कि उन्होंने साल 1894-95 के बीच अपने बिरसाइत धर्म की स्थापना की थी। आज बिरसा को लाखों लोग भगवान की तरह मानते हैं और उनके इस धर्म को मानने वालों की संख्या हजारों में होगी. यह धर्म खूंटी, सिमडेगा और चाईबासा ज़िले में विशेष रूप से देखने को मिलता है।
जनजातियों के महानायक बिरसा मुंडा
बिरसा मुंडा को आदिवासियों के महानायक के रूप में याद किया जाता है, एक ऐसा महानायक जिसने अपने क्रांति से आदिवासियों को उनके अधिकार और उनमें सुधार लाने लिए संघर्ष किया। जब पूरा आदिवासी समाज ब्रिटिश शासकों ,जमींदारों, और जागीरदारों शोषण के तले दबा हुआ था, उस समय उन्होंने इस पूरे समाज को उठाने और एक नई जिंदगी देने का काम किया था।