रायपुर .छत्तीसगढ़ जो कि धान के कटोरे के नाम से भी जाना जाता है के धान की खुशबू अब फीकी पड़ती जा रही है.छत्तीसगढ़ के खुशबूदार चावल की जिन किस्मों से पूरा देश ही नहीं विदेशों में भी हांडियां महकती थीं, सिर्फ दस साल में उसी सुगंधित धान की पैदावार हटकर एक चौथाई रह गई है। कम मेहनत में सरकारी समर्थन मूल्य के जरिए तगड़ा मुनाफा देने वाले मोटे धान की किस्में खेतों में छा गईं।ज्यादा मेहनत और ज्यादा दिनों में पकने वाले सुगंधित धान की पैदावार इस बुरी तरह गिरी है कि दस साल में उत्पादन दस लाख टन से घटकर ढाई लाख टन ही रह गया। पांच साल पहले तक छत्तीसगढ़ से दुबराज, जंवाफूल, विष्णुभोग, जीरा फूल और तरुण भोग जैसे खास सुगंधित चावल का एक्सपोर्ट सालाना पांच लाख टन था। मोटे धान की खेती ने इसकी पैदावार इतनी कम कर दी कि निर्यात पूरी तरह खत्म हो गया।नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ का गठन हुआ, तब यहां करीब दस लाख टन सुगंधित चावल की पैदावार होती थी। उसमें से करीब पांच लाख टन निर्यात होता था। अब तो कुल पैदावार ही मात्र ढाई लाख टन तक सिमट गई। यहां के चावल की मांग देश के प्रमुख शहरों के अलावा अमेरिका, दुबई, सऊदी अरब और इंग्लैंड में भी होती थी। यहां जितना चावल बन रहा है, उतना राज्य में ही खप जाता है। बाहर भेजने के लिए बचत ही नहीं है। पहले इंदौर भोपाल के पोहा उद्योग से लेकर उत्तर भारत के पुलाव में छत्तीसगढ़ का चावल विशेष महत्व रखता था।
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