मैं इस कल्पना से ही रोमांचित हूँ कि मेरे हाईस्कूल के मित्रों के साथ पैतालीस वर्ष बाद मिलकर कितना भावविभोर महसूस करूँगा.. मुझे कैसा महसूस होगा?
उन मित्रों के साथ मिलकर, जिनके साथ पढ़ते हुए हमारी मूंछें भी ठीक से नहीं निकल पाईं थीं, अब जब डाढ़ी मूंछ और सिर के सारे बाल सफेद हो गये हैं, किसी किसी के बाल तो झड़ भी गये हैं, ऐसे में हम उन्हें पहचान पाएंगे भी या नहीं?
वर्ष 1978-79 में पुराना मेट्रिक पास कर हम सब अलग अलग कॉलेज और अन्य संस्थानों में अपनी अपनी रुचि और घर की परिस्थितियों के मुताबिक पढ़ने या काम करने चले गये थे. इस बीच कभी कभार दो चार मित्रों के साथ मुलाकात भी हो जाती थी. कभी कभी तो दूर से ही दुआ सलाम की औपचारिकता मात्र हो पाती थी, तो कुछ मित्रों के साथ दो चार बातें भी हो जाती थीं.
मुझे स्मरण हो रहा है, सबसे ज्यादा मुलाकात मेरी त्रिलोचन सिंह के साथ होती थी. मैं रजबंधा मैदान, रायपुर स्थित दैनिक छत्तीसगढ़ प्रेस में सहायक संपादक था, इसलिए प्रेस कार्यालय से दैनिक भास्कर होते हुए जिला सहकारी केंद्रीय बैंक के मुख्य मार्ग से होते हुए घर आता जाता था. यहीं पर त्रिलोचन अपने टैक्सी के व्यवसाय के सिलसिले में मिल जाता था. मुझे देख लेता तो चिल्लाता था- अबे सुशील.. आना बे.. चाय पीते हैं. फिर हम केंद्रीय सहकारी बैंक के सामने वाले चाय ठेला में खड़े होकर चाय पीते थे.
इसके बाद मनोज सोनी के साथ भी मेरी काफी मुलाकात होती थी. तब मनोज भाई नगर निगम रायपुर के संस्कृति विभाग में कार्यरत थे, इसलिए छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा डॉ. खूबचंद बघेल की जयंती एवं पुण्यतिथि के कार्यक्रमों की व्यवस्था की जिम्मेदारी निगम की ओर से मनोज को ही दी जाती थी. हम लोग खूबचंद बघेल वाले कार्यक्रम में आयोजक मंडल में रहते थे, इसलिए वहाँ जाते और कार्यक्रम में भागीदारी निभाते थे. इसी दरमियान मनोज भाई से मुलाकात भी होती थी और साथ में बैठकर गप्पें भी लड़ाते थे.
शत्रुहन यादव के साथ भी उसके आमापारा वाली दुकान में एक दो बार मुलाकात हुई, साथ बैठकर चाय भी पीए. प्यारेलाल सेन के साथ रास्ते चलते कई बार मुलाकात हुई, बातें भी होती थी. इसी तरह राजू दुबे के साथ लिली चौक के पान ठेला पर दुआ सलाम हो जाता था. दीपक ब्राहा के साथ रायपुर से मांढर वाले लोकल ट्रेन में जब वह स्कूल जा रहा था, तो मैं भी उसी ट्रेन से अपने गाँव नगरगांव जा रहा था, तब उसने बताया था कि वह मांढर हाई स्कूल में ही शिक्षक है.
हरीश अवधिया नगरी सिहावा के एक कवि और कलाकार मित्र नरेंद्र प्रजापति के साथ मेरे प्रेस पर आए थे, जब मैं छत्तीसगढ़ी भाषा की प्रथम मासिक पत्रिका ‘मयारु माटी’ का प्रकाशन संपादन कर रहा था. उस समय हरीश ने बताया था कि वह नगरी में ही शिक्षक है.
ज्ञानेश शर्मा के साथ तो कई बार मुलाकात हुई. ज्ञानेश राजनीति के चक्कर में इधर उधर आना जाना करता था, मैं भी छत्तीसगढ़ राज्य आन्दोलन और छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति के कार्यक्रमों में जाता था, इसलिए मुलाकात हो जाती थी. नरेंद्र बंछोर के साथ भी एक दो बार मुलाकात हुई लेकिन बात नहीं हो पाई. लीलाधर पंसारी/तंबोली के साथ तो कभी ठलहा समय में बैठ भी लिया करता था , एकाद बार फिल्म भी देखे थे. एकाद बार रशीद मोहम्मद के साथ भी मुलाकात हुई थी, शायद रशीद भाई अब इस दुनिया में नहीं हैं.
मुझे स्मरण नहीं आ रहा है, कि इन सब मित्रों के अलावा और किन किन मित्रों के साथ आर. डी. तिवारी से पढ़कर निकलने के पश्चात मुलाकात हुई?
खैर, अब जब पैतालीस वर्ष बाद रविवार 7 अप्रैल को अभिनंदन पैलेस चंगोराभाठा, रायपुर में सभी मित्रों के साथ पुनः मिलने का संजोग बना है, तब यह सोचता हूँ कि मैं उनमें से कितनों को एक नज़र में ही पहचान पाऊंगा? क्योंकि इन पैतालीस वर्षों में आधे से भी ज्यादा मित्रों को तो हम देखे भी नहीं हैं.
खैर… जैसा भी हो बालसखाओं से बूढ़ापे के आॅंगन में मिलना रोमांचकारी तो होगा ही और साथ ही अविस्मरणीय भी.
-सुशील वर्मा भोले