Tuesday, August 26

रायपुर। जगदलपुर। बस्तर दशहरा का राम-रावण युद्ध से कोई सरोकार नहीं है। यह ऐसा अनूठा पर्व है, जिसमें रावण नहीं मारा जाता अपितु बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी सहित अनेक देवी-देवताओं की 13 दिन तक पूजा-अर्चना होती है। बस्तर दशहरा विश्व का सर्वाधिक दीर्घ अवधि वाला पर्व माना जाता है जो 75 दिन तक चलता है।
हरेली अमावस्या अर्थात तीन माह पूर्व से दशहरा की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह माना जाता है कि यह पर्व 600 से अधिक वर्षों से परंपरानुसार मनाया जा रहा है। दशहरा की काकतीय राजवंश एवं उनकी इष्टदेवी मां दंतेश्वरी से अटूट प्रगाढ़ता है। इस पर्व का आरंभ वर्षाकाल के श्रावण मास की हरेली अमावस्या से होता है, जब रथ निर्माण के लिए प्रथम लकड़ी विधिवत काटकर जंगल से लाई जाती है। इसे पाटजात्रा विधान कहा जाता है। पाट पूजा से ही पर्व के महाविधान का श्रीगणेश होता है। तत्पश्चात स्तंभरोहण के अंर्तगत बिलोरी ग्रामवासी सिरहासार भवन में डेरी लाकर भूमि में स्थापित करते हैं। इस रस्म के उपरांत विभिन्न गांवों से लकड़ियां लाकर रथ निर्माण कार्य प्रारंभ किया जाता है। इस लंबी अवधि में पाटजात्रा, काछन गादी, जोगी बिठाई, मावली परघाव, भीतर रैनी, बाहर रैनी तथा मुरिया दरबार मुख्य रस्में हैं। इन्हें संभाग मुख्यालय में धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। काछनगुड़ी में कुंवारी हरिजन कन्या को कांटे के झूले में बिठाकर झूलाते हैं तथा उससे दशहरा की अनुमति व सहमति ली जाती है। भादो मास के पंद्रहवें अर्थात अमावस्या के दिन काछनगादी के नाम से यह विधान संपन्न होता है।
जोगी बिठाई परिपाटी के पीछे ग्रामीणों का योग के प्रति सहज ज्ञान झलकता है, क्योंकि दस दिनों तक भूमिगत होकर बिना मल-मूत्र त्यागे तप साधना की मुद्रा में रहना आसान या सामान्य बात नहीं है। बस्तर दशहरा का आकर्षण का केंद्र काष्ठ निर्मित विशालकाय दुमंजिला रथ है, जिसे सैकड़ों ग्रामीण उत्साहपूर्वक खींचते हैं। रथ पर ग्रामीणों की आस्था, भक्ति का प्रतीक मांई दंतेश्वरी का छत्र होता है। जब तक राजशाही जिंदा थी, राजा स्वयं सवार होते थे। बिना आधुनिक तकनीक व औजारों के एक निश्चित समयावधि में विशालकाय रथ का निर्माण आदिवासियों की काष्ठ कला का अद्वितीय प्रमाण है, वहीं उनमें छिपे सहकारिता के भाव को जगाने का श्रेष्ठ कर्म भी है। जाति वर्ग भेद के बिना समान रूप से सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित कर सम्मानित करना एकता-दृढ़ता का प्रतीक है।  पर्व के अंत में संपन्न होने वाला मुरिया दरबार इसे लोकतांत्रिक पर्व के तौर पर स्थापित करता है। पर्व के सुचारु संचालन के लिए दशहरा समिति गठित की जाती है, जिसके माध्यम से बस्तर के समस्त देवी-देवताओं, चालकी, मांझी, सरपंच, कोटवार, पुजारी सहित ग्राम्यजनों को दशहरा में सम्मिलित होने का आमंत्रण दिया जाता है।

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