इस खूबसूरत दुनिया में इंसान की सनक की कोई हद नहीं है. ऐसी इंसानी दुनिया में आज रू-ब-रू होते हैं अंतिम संस्कार के उन अजीब-ओ-गरीब रिवाजों से, जिनके बारे में जानकर हर कोई दांतों तले उंगली दबा लेगा.अंतिम संस्कार ने इन अलग अलग तरह के हैरतअंगेज रीति-रिवाजों में कहीं लाश की राख का सूप बनाया जाता है तो कहीं लाश ही पक्षियों को खाने के लिए डाल दी जाती है और तो और एक जगह तो अंतिम संस्कार की रस्म के नाम पर लाश के मोती तक बनवा डालने का रिवाज है. आइए जानते हैं दुनिया में अंतिम संस्कारों के हैरान कर डालने वाले इन रीति-रिवाजों से. इंसानी दुनिया के किसी भी कोने में घूम आइए. अंतिम संस्कार के रीति-रिवाज कमोबेश सभी जगह हर समाज, धर्म में अपने-अपने हिसाब से अपनाए जाते हैं. मसलन, हिंदू धर्म में शव को अग्नि में जलाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो मुसलिम और ईसाई धर्म में शव को दफनाया जाता है. यह सब तो दुनिया में सभी को पता होगा. आइए अब बात करते हैं दुनिया में प्रचलित अंतिम संस्कार की इन दो प्रथाओं से अलग.
शव की पूजा करने के बाद होते हैं टुकड़ेमीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, तिब्बत में बौद्ध धर्म के लोगों के अंतिम संस्कार की बात करें तो आकाश में अंतिम संस्कार किया जाता है. अंतिम संस्कार की प्रक्रिया या रीति-रिवाज के इस क्रम में शव को किसी पहाड़ की चोटी पर ले जाया जाता है. वहां अंतिम संस्कार के लिए पहले से ही जगह मौजूद होती है. अंतिम संस्कार स्थल पर वहां पहले से ही कुछ लामा या बौद्ध भिक्षु मौजूद रहते हैं. वे सबसे पहले तो शव की विधि-विधान से पूजा करते हैं. उसके बाद वहां मौजूद रोग्यापस (विशेष कर्मचारी) शव के छोटे-छोटे टुकड़े करता है. उसके बाद दूसरा कर्मचारी उन टुकड़ों को जै के आटे के घोल में डुबोता है, जिन्हें बाद में गिद्ध और चीलों के हवाले कर दिया जाता है. उसके बाद बची हुई अस्थियों (हड्डियों) को फिर से चूरा बनाकर जौ के आटे के घोल में डुबोकर चील-कौवों के हवाले कर दिया जाता है. यह परंपरा बहुत पुरानी है. डेली मेल की खबर के मुताबिक, इस परंपरा के पीछे कुछ प्रमुख वजहें या कारण हैं. पहला तिब्बत बेहद ऊंचाई पर है. यहां पेड़ आसानी से नहीं पाए जाते हैं. लिहाजा शव जलाने के लिए लकड़ियों को जुटा पाना बेहद मुश्किल है. दूसरे यहां की जमीन पथरीली है. शव दफनाने के लिए कब्र (गढ्ढा) खोद पाना भी टेढ़ा काम है और इन सबके अलावा बौद्ध धर्म की मान्यता अहम है, जिसके मुताबिक, मृत शरीर खाली बर्तन सा है. उसे सजाकर रखने की जरूरत नहीं है. दफनाने से भी लाश को कीड़े-मकोड़े ही खाते हैं. बेहतर है कि शव को पक्षियों के हवाले करके उनका निवाला बनवा दिया जाए. इसे बौद्ध धर्म में “आत्म बलिदान” भी कहा जाता है.
यहां बार बार कब्र से निकालते हैं शवअफ्रीका के पूर्व तट पर स्थित मैडागास्कर में शव दफनाने के बाद उसे बीच-बीच में निकाल कर देखा जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि जब तक शव का मांस गल नहीं जाएगा, तब तक मृतात्मा की मुक्ति नहीं हो सकेगी. मतलब उसे दूसरा जन्म नसीब नहीं हो सकेगा. जब शव का कंकाल भर बाकी बचता है तो जश्न मनाया जाता है. शव को कब्र से निकाल कर मौके पर ही नाच-गाना होता है. उसके बाद शव को फिर से कब्र में दफना दिया जाता है. स्थानीय भाषा में लोग इस परंपरा को फामाडिहाना कहते हैं. अब बात यानोमानी जनजाति में शव के अंतिम संस्कार की. यह जनजाति अमेजन के जंगलों में पाई जाती है. यह लोग एंडोकैनिबलिज्म रिवाज को अंतिम संस्कार के लिए अपनाते हैं. जिसके अंतर्गत लाश को पत्तों से ढककर घर के भीतर रख दिया जाता है. एक महीने बाद शव को जलाकर उसकी राख बर्तन में बंद कर देते हैं. उसके बाद शव की उसी राख का सूप बनाकर परिवार वाले पीते हैं. द गार्जियन की खबर के मुताबिक, इसके पीछे माना जाता है कि मृत आत्मा को तभी शांति मिलती है, जब उसके शव का इस्तेमाल उसके अपने ही करें. लॉस एंजिल्स टाइम्स की एक खबर के मुताबिक, दक्षिण कोरिया की एक ‘डेथ बीड’ कंपनी बोनहयांग है. यह शवों की राख को मोतियों में ब-हिफाजत सहजकर रखती है. कंपनी संस्थापक और सीईओ बा जे-यूल के अनुसार अब तक कंपनी 1000 से ज्यादा ग्राहकों को सेवा प्रदान कर चुकी है. और भी कई कंपनियां अब बाजार में आ चुकी हैं. जो शव की राख को मोतियों में सहजकर रखती हैं. मतलब, शव की राख के मोती बनते हैं. ऐसी ही एक मिकवांग नाम की कंपनी भी हजारों शवों की राख के मोती सहज कर अब तक रख चुकी है. इन मोतियों के हार नहीं बनते. बस इन्हें कांच के बर्तन में डालकर ही घर के भीतर रखा जा सकता है.
शव को साथ रखने का रिवाजबात अगर इंडोनेशिया में दक्षिणी सुलावेसी के पहाड़ों पर रहने वाले तोरजा समाज की करें तो यह लोग शव को दफनाने के बजाए अपने साथ ही रख लेते हैं. क्योंकि यह समाज शव को भी अपने परिवार का ही हिस्सा मानता है. इस समाज के लोग शव को घर में मौजूद किसी बीमार का सा समझते-मानते हैं, जिसे इस समाज की भाषा में ‘मुकुला’ भी कहा जाता है. शव की सुरक्षा के लिए उसे नियमित रूप से फॉर्मल्डिहाइड और पानी के लेप से भिगोया जाता है. डेली मेल की खबर के मुताबिक इस समाज की मान्यता है कि इंसान के अंतिम संस्कार में कुनबा साथ होना चाहिए. अंतिम संस्कार के वक्त यादगार भोज का इंतजाम होता है. भैंसे की बलि दी जाती है. शव के साथ भैंसा रखने के पीछे भी दिलचस्प कहानी है. इस समाज के लोगों का मानना है कि मृत व्यक्ति की आत्मा को भैसा ही उसे दूसरी दुनिया की यात्रा पूरी करवाता है. इस समाज के लोग शव को दफनाने के बजाए, पहाड़-पहाड़ियों पर मौजूद प्राकृतिक गुफाओं में ताबूत के अंदर रखते हैं. जरूरत की चीजें भी साथ रख दी जाती हैं.
तीन साल बाद दोबारा करते हैं अंतिम संस्कारशव के साथ सामान रखने के पीछे मान्यता है कि उस सामान का इस्तेमाल आत्माओं द्वारा किया जाता है. अंतिम संस्कार करने के बाद तोरजा समाज के लोग हर तीन साल में दूसरा अंतिम संस्कार करने की प्रथा को निभाते चले आ रहे हैं. जिसे स्थानीय भाषा में ‘मानेन’ बोला जाता है. सरल भाषा में इसे स्थानीय लोग शवों के सफाई संस्कार के रूप में भी बोलते-पहचानते हैं. यह सफाई संस्कार उसी जगह पर होता है जहां इंसान की मौत हुई होती है. शवों को ताबूत से निकाल कर लाया जाता है. तीसरे साल में शव को साफ करके उसके बाल बनाए जाते हैं. नए वस्त्र धारण करवाए जाते हैं. परिवार के लोग शव के साथ फोटो खिंचवा कर खुद को धन्य यानी भाग्यवान समझते हैं. इसी दौरान ताबूतों की मरम्मत के बाद शवों को उनमें वापिस बंद कर दिया जाता है.