Saturday, December 13

प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी की करिश्माई उपस्थिति और संगठनात्मक नेतृत्व की भरपूर प्रशंसा की गई है, लेकिन जिस बात को कम ही लोग जानते और समझते हैं, वह यह है कि उनकी कठोर पेशेवर प्रतिबद्धता ही उनके काम की विशेषता है। गुजरात के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में पिछले ढाई दशकों में उनकी कार्यशैली में निरंतर पेशेवर नैतिकता विकसित हुई है।

जो बात उन्हें औरों से अलग बनाती है, वह प्रदर्शन की प्रतिभा नहीं, बल्कि ऐसा अनुशासन है, जो विजन को टिकाऊ प्रणालियों में तब्‍दील करता है। भारतीय मुहावरे में कहा जाए, तो वह कर्मयोगी हैं: कर्तव्य पर आधारित ऐसा कर्म, जिसका आकलन जमीनी स्‍तर पर आए बदलाव से होता है।

यही नैतिकता इस वर्ष लाल किले से उनके स्वतंत्रता दिवस के संबोधन का आधार रही। उनके इस भाषण में उपलब्धियों का लेखा-जोखा कम और मिल-जुलकर कार्य करने का चार्टर ज़्यादा प्रस्तुत किया गया: नागरिकों, वैज्ञानिकों, स्टार्ट-अप्स और राज्यों को विकसित भारत के सह-लेखक के रूप में आमंत्रित किया गया। गहन प्रौद्योगिकी, स्वच्छ विकास और मजबूत आपूर्ति श्रृंखलाओं में महत्वाकांक्षाओं को कोरे शब्‍दों में नहीं, बल्कि व्यावहारिक कार्यक्रमों के रूप में प्रस्तुत किया गया। इन कार्यक्रमों को जनभागीदारी, यानी बुनियादी ढाँचे का निर्माण करने वाले राज्य और उद्यमी लोगों के बीच की साझेदारी को एक पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया गया।

हाल ही में किया गया जीएसटी ढाँचे का सरलीकरण इसी पद्धति को दर्शाता है। स्लैब को कम करके और अवरोधों को दूर करके, परिषद ने छोटी फर्मों के लिए अनुपालन लागत कम की है और इसका लाभ सीधे घर-घर तक पहुँचाने की गति बढ़ाई है। प्रधानमंत्री का ध्यान संक्षिप्‍त राजस्व वक्रों पर नहीं, बल्कि इस बात पर था कि क्या आम नागरिक या छोटा व्यापारी इस बदलाव को जल्दी महसूस कर पाएगा या नहीं। यह स्‍वाभाविक प्रवृत्ति उस सहकारी संघवाद को प्रति‍ध्‍वनित करती है, जिसने जीएसटी परिषद का मार्गदर्शन किया है: राज्य और केंद्र गहन विचार-विमर्श करते हैं, लेकिन सभी एक ऐसी प्रणाली के भीतर काम करते हैं जो स्थिर रहने के बजाय परिस्थितियों के अनुकूल ढल जाती है। नीति को एक जीवंत साधन माना जाता है, जो कागज़ पर समरूपता के लिए संरक्षित एक स्मारक के रूप में न रहकर अर्थव्यवस्था की लय के अनुरूप ढाली गई है।

यही वह व्यावसायिक दृ‍ष्टिकोण है, जो अमेरिका से वापसी की 15 घंटे की लंबी उड़ान के बाद देर रात बिना किसी सूचना के निर्माणाधीन नए संसद भवन के गेट पर पहुंचने की बात को समझाता है।

हाल ही में मैंने प्रधानमंत्री से पंद्रह मिनट का समय माँगा था। इस दौरान हुई चर्चा के दौरान मैं उनकी व्यापक समझ और बहुआयामी दृष्टिकोण — एक ही फ्रेम में समाहित बारीक से बारीक विवरण और व्यापक संपर्क देखकर आश्‍चर्य चकित रह गया। यह बैठक पैंतालीस मिनट चली। सहकर्मियों ने बाद में मुझे बताया कि उन्होंने इसकी तैयारी में दो घंटे से ज़्यादा समय लगाया, नोट्स, आँकड़े और प्रतिवादों का अध्‍ययन किया। तैयारी का यह स्तर कोई अपवाद नहीं है; यह कार्य का वह मानदंड है, जिसे उन्‍होंने स्‍वयं के लिए निर्धारित किया है और जिसकी वह व्यवस्था से भी अपेक्षा रखते हैं। निरंतर तैयारी की यही आदत सुनिश्चित करती है कि निर्णय ठोस और भविष्य के लिए उपयुक्त हों।

भारत की हाल की प्रगति का अधिकांश आधार उन व्‍यवस्‍थाओं और प्रणालियों पर टिका है, जिन्हें हमारे नागरिकों की गरिमा सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। डिजिटल पहचान, सार्वभौमिक बैंक खाते और रीयल-टाइम भुगतान की त्रिमूर्ति ने समावेशन को बुनियादी ढाँचे में बदल दिया है। लाभ सीधे सत्यापित नागरिकों तक पहुँचते हैं; उचित व्‍यवस्‍था के कारण गड़बडि़याँ कम होती हैं; छोटे व्यवसायों को अनुमानित नकदी प्रवाह मिलता है; और नीतियाँ धारणाओं की बजाय आँकड़ों पर आधारित होती हैं। इस प्रकार अंत्योदय – अंतिम नागरिक का उत्थान – यह एक नारा भर नहीं, बल्कि मानक बन जाता है – और प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुँचने वाली प्रत्येक योजना, कार्यक्रम और फ़ाइल की असली कसौटी बन जाता है।

असम के नुमालीगढ़ में भारत के पहले बांस-आधारित 2जी इथेनॉल संयंत्र के शुभारंभ के दौरान मुझे एक बार फिर इसका साक्षी बनने का सौभाग्य मिला। इंजीनियरों, किसानों और तकनीकी विशेषज्ञों के साथ खड़े होकर, प्रधानमंत्री ने सीधे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रश्न पूछे : किसानों को भुगतान उसी दिन कैसे प्राप्त होगा; क्या आनुवंशिक इंजीनियरिंग से ऐसा बाँस तैयार किया जा सकता है, जो तेज़ी से बढ़ता है और गांठों के बीच बाँस के तने की लंबाई बढ़ाता है; क्या महत्वपूर्ण एंजाइमों का स्वदेशीकरण किया जा सकता है; क्या बाँस के हर घटक—तना, पत्ती, अवशेष का इथेनॉल से लेकर फुरफुरल और ग्रीन एसिटिक एसिड तक— आर्थिक उपयोग किया जा रहा है,? चर्चा केवल तकनीक तक ही सीमित नहीं थी। यह लॉजिस्टिक्‍स, आपूर्ति श्रृंखला के लचीलेपन और वैश्विक कार्बन फुटप्रिंट तक व्‍याप्‍त रही। अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में भाग लेने वाले व्यक्ति के रूप में, मैंने इस पद्धति को तुरंत पहचान लिया: संक्षिप्त विवरण की स्पष्टता, विवरण में सटीकता और इस बात पर ज़ोर कि कतार में खड़ा अंतिम व्यक्ति पहला लाभार्थी होना चाहिए।

यही स्पष्टता भारत की आर्थिक नीति को भी जीवंत करती है। ऊर्जा के क्षेत्र में, विविध आपूर्तिकर्ता समूह और संयमित ठोस खरीदारी ने उतार-चढ़ाव भरे समय में हमारे हितों को सुरक्षित रखा है। विदेश में एक से ज़्यादा मौकों पर, मेरे पास बेहद सरल निर्देश था: आपूर्ति सुनिश्चित करना, सामर्थ्य बनाए रखना और भारतीय उपभोक्ताओं को केंद्र में रखना। उस स्पष्टता का सम्मान किया गया और परिणामस्वरूप बातचीत और भी सुचारू रूप से आगे बढ़ी।

राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में भी किसी तरह के दिखावे से परहेज किया गया है। दृढ़ संकल्प और संयम के साथ संचालित अभियानों—लक्ष्य स्पष्ट, सैन्य बलों को संचालन की स्वतंत्रता, निर्दोषों की सुरक्षा—में शोरगुल के बजाय भरोसे को तरजीह दी गई। नैतिक सिद्धांत एक ही है: कड़ी मेहनत करो, परिणाम स्‍वयं सामने आएंगे।

इन विकल्पों के पीछे एक विशिष्ट कार्यशैली छिपी है। चर्चाएँ सभ्य, लेकिन कठोर होती हैं; परस्पर विरोधी विचारों का स्वागत है, लेकिन भ्रम की कोई जगह नहीं है। सभी की बात सुनने के बाद, वह एक मोटे दस्तावेज़ को ज़रूरी विकल्पों तक सीमित कर देते हैं, ज़िम्मेदारी सौंपते हैं और सफलता तय करने के मापदंड बताते हैं। सबसे ज़ोरदार तर्क नहीं, बल्कि सबसे अच्छे तर्क की जीत होती है; तैयारी का सम्‍मान किया जाता है; निरंतर फॉलोअप किया जाता है। सहकर्मियों के लिए, यह तैयारी एक सीख होती है; व्यवस्था के लिए, यह एक ऐसी संस्कृति है, जहाँ परिणाम की गुणवत्‍ता का अनुमान नहीं लगाया जाता, बल्कि उसका आकलन किया जाता है ।

यह कोई संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री का जन्मदिन दिव्य शिल्पी- विश्वकर्मा की जयंती वाले दिन ही पड़ता है। यह समानता शाब्दिक नहीं, बल्कि शिक्षाप्रद है: सार्वजनिक जीवन में, सबसे स्थायी स्मारक संस्थाएँ, मंच और मानक होते हैं। नागरिक के लिए, कार्य निष्‍पादन एक ऐसा लाभ है, जो समय पर मिलता है और एक ऐसी कीमत, जो उचित रहती है; उद्यम के लिए, यह नीतिगत स्पष्टता और विस्तार का एक विश्वसनीय मार्ग है; राज्य के लिए, यह ऐसी व्यवस्थाएँ हैं, जो दबाव में भी टिकी रहती हैं और उपयोग के साथ बेहतर होती जाती हैं। नरेन्‍द्र मोदी को इसी मापदंड से देखा जाना चाहिए; एक ऐसे कर्मयोगी के रूप में जिनका कार्य निष्‍पादन दिखावा नहीं, बल्कि एक ऐसी सेवा है, जो भारतीय इतिहास के अगले अध्याय को आकार दे रही है।

लेखक केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हैं।

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