Thursday, December 11

कल 24 जनवरी को नेशनल गर्ल चाइल्ड डे था और कल ही मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच के एक फैसले ने हमारे देश, कानून, समाज की कलई खोल दी और बता दिया कि बालिका दिवस के इस सारे तामझाम के पीछे इस देश में लड़कियों जिंदगी की असलियत क्या है. नागपुर बेंच का ये फैसला 19 जनवरी का है, जो कल से ट्विटर पर ट्रेंड कर रहा है. ये फैसला कह रहा है कि लड़की के ब्रेस्ट को जबरन छूना भर यौन उत्पीडऩ नहीं है. अगर कपड़े के ऊपर से छुआ गया है और स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ है तो यह पॉस्को कानून के सेक्शन 7 के तहत यौन उत्पीडऩ और सेक्शन 8 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है.
ये केस 2016 का है. एक 39 वर्षीय आदमी ने एक 12 साल की बच्ची को अमरूद देने के बहाने अपने घर में बुलाया और उसका यौन उत्पीडऩ करने की कोशिश की. लड़की की मां ने एफआईआर में लिखवाया कि उसकी बेटी अमरूद लेने के लिए घर से निकली. रास्ते में उस आदमी ने बच्ची को देखा और कहा कि वो उसे अमरूद देगा. वो उसका हाथ पकड़कर अपने घर में ले गया. घर में उसने कपड़े के ऊपर से बच्ची के ब्रेस्ट दबाए और उसका सलवार उतारने की कोशिश की. इस पर लड़की चिल्लाई तो आदमी ने अपने हाथ से उसका मुंह दबाया. फिर वहां से चला गया और कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया. तभी बेटी की आवाज सुनकर मां वहां आई. उसने दरवाजा खोला और देखा बेटी अंदर है. वो रो रही थी. मां बेटी को उस कमरे से ले गई. फिर बेटी ने पूरी कहानी सुनाई कि कैसे वो आदमी उसे अमरूद देने के बहाने से इस कमरे में लेकर आया. जब ये केस निचली अदालत में पहुंचा तो अदालत ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (शील भंग के इरादे से महिला पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग), 363 (अपहरण के लिए सजा) और 342 (गलत तरीके से बंदी बनाकर रखने की सजा) के तहत एक साल के कारावास की सजा सुनाई. साथ ही पॉक्सो एक्ट (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस, 2012) के सेक्शन 8 के तहत तीन साल के कारावास की सजा सुनाई.
उस आदमी ने इस फैसले के खिलाफ मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में अपील की, जिसका फैसला इस महीने की 19 तारीख को आया. सिंगल जज वाली इस बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए पॉस्को कानून के तहत दी गई 3 साल की सजा माफ कर दी. न्यायमूर्ति गनेडीवाला ने अपने फैसले में कहा, सिर्फ ब्रेस्ट को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा. इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट होना ज़रूरी है. जज ने आईपीसी की धाराओं के तहत दी गई एक साल की सजा बरकरार रखी.
अब इस फैसले में गौर करने वाली तीन जरूरी बातें हैं-

  1. न्यायमूर्ति गनेडीवाला के जजमेंट में साफ लिखा है कि वह 12 साल की बच्ची के स्तन को जबर्दस्ती पकडऩे, दबोचे जाने और उसकी सलवार उतारने की बात स्वीकार कर रही हैं. यानी यह लैक ऑफ एविडेंस या सबूतों के अभाव का मामला नहीं है. जैसा कि प्रथम दृष्टया इस केस की खबर सुनकर कई लोगों को लग सकता है. अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, लेकिन न्यायालय अंतत:सबूत मांगता है.
  2. पॉस्को कानून की जिस परिभाषा और उसकी व्याख्या (स्किन टू स्किन कॉन्टेक्ट) को न्यायमूर्ति गनेडीवाला ने अपने फैसले में कोट किया है, ऐसी कोई परिभाषा या व्याख्या पॉस्को कानून में कहीं नहीं लिखी है. कानून कहता है, बच्चे के अंगों को यौन इरादे से छूना या अपने अंग छुआना. यह कानून अंग विशेषों (छाती, योनि, नितंब) को अलग से रेखांकित करते हुए उसे छूने या छुआने की बात को स्पष्ट करने के बाद उसी वाक्य में आगे कहता है, यानी यौन मंशा के साथ किया गया और कोई भी काम. अब इस ऐनी अदर एक्ट की परिभाषा बच्ची का हाथ पकडऩे से लेकर उसे कमरे में लेकर जाना तक शामिल है.
    सुप्रीम कोर्ट की वकील चारू खन्नावली कहती हैं, जब वो आदमी हाथ पकड़कर बच्ची को कमरे में ले गया तो ये हाथ पकडऩा भी यौन मंशा के साथ किया गया कृत्य था. यह अपने आप में पॉस्को की सेक्सुअल ऑफेंस की परिभाषा के तहत दंडनीय अपराध है. इस केस में सारी बातें स्पष्ट हैं और जजमेंट में साफ लिखी भी हुई हैं. फिर यह विचित्र फैसला क्यों?
  3. तो दरअसल यह फैसला पॉस्को कानून को गलत तरीके से या कम समझने और परिभाषित करने का नहीं है. यह फैसला पॉस्को कानून के प्रावधानों का साफ-साफ उल्लंघन है. चारू खन्ना वली कहती हैं, जज ने कानून को ताक पर रखते हुए अपने मन से एक अजीबोगरीब फैसला दे दिया है. यह फैसला जज की अपनी सोच और मानसिकता को दर्शाता है. पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट में एक मामले की सुनवाई करते हुए अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने कहा था, निचली अदालतों और हाईकोर्ट के जजों को भी जेंडर के मुद्दे पर संवेदनशील बनाने की जरूरत है. जजों की भर्ती परीक्षा में जेंडर सेंसटाइजेशन पर भी एक अध्याय होना चाहिए. इस चीज के लिए गाइडलाइंस बनाई जानी चाहिए कि यौन उत्पीडऩ के मामलों के साथ किस प्रकार की संवेदनशीलता बरती जाए. हमें अपने जजों को शिक्षित करने की जरूरत है.
    पीपुल्स अगेन्स्ट रेप इन इंडिया (परी) नामक संस्था चलाने वाली सोशल एक्टिविस्ट योगिता भयाना कहती हैं, यह इतना खतरनाक फैसला है. जज खुद एक महिला हैं. कभी-न-कभी तो उन्होंने भी इन सब चीजों का सामना किया होगा. इस देश में कोई महिला ये दावा नहीं कर सकती कि उसने जीवन में इस तरह के व्यवहार का अनुभव नहीं किया. सबसे पहले तो ऐसे केस न्यायालय तक पहुंचते ही नहीं और जो पहुंचते हैं, उसका ये हश्र होता है. अगर एक महिला जज ऐसा मूर्खतापूर्ण फैसला सुनाती हैं तो किससे न्याय की उम्मीद की जाए.
    चारू खन्ना कहती हैं, एक तरफ तो महिला वकील और एक्टिविस्ट ये मांग कर रही हैं कि और महिला जजों की नियुक्ति हो ताकि महिलाओं के लिए ज्यादा संवेदनशील वातावरण बन सकें. वहीं दूसरी ओर महिला जज इस तरह के फैसले सुना रही हैं. सोशल मीडिया पर लोगों में काफी गुस्सा है. इस केस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की मांग हो रही है. चारू खन्ना कहती हैं, इस फैसले ने हमारे सामने एक खतरनाक नजीर पेश की है. अगर यह केस सुप्रीम कोर्ट में नहीं जाता तो सुप्रीम कोर्ट को स्वत: संज्ञान लेते हुए नागपुर बेंच को फैसले को खारिज कर देना चाहिए. यह खतरनाक नजीर इसलिए है क्योंकि इसका असर दूसरे ऐसे फैसलों पर पड़ेगा.
    जज पुष्पा गनेडीवाला की व्याख्या को मानें तो कंडोम पहनकर किया गया रेप भी रेप नहीं होगा क्योंकि स्किन टू स्किन टच तो हुआ ही नहीं. पहले भी कई मौकों पर जजों ने ऐसे फैसले सुनाए हैं, जो न? सिर्फ उनकी सीमित बुद्धि बल्कि इस बात का प्रमाण हैं कि स्त्रियों को लेकर उनकी मानसिकता आज भी 200 साल पुरानी है. चाहे वो छेडख़ानी करने वाले व्यक्ति को राखी बांधने का इंदौर हाईकोर्ट का फैसला हो या अपने रेपिस्ट से शादी करवाने का राजस्थान हाईकोर्ट का या भंवरी देवी केस में राजस्थान की निचली अदालत का वो बेहूदा बयान, जिसमें कोर्ट ने कहा कि एक ऊंची जाति का आदमी निचली जाति की औरत को हाथ भी नहीं लगा सकता. रेप कैसे करेगा.
    औरत के लिए न्याय के नजरिए से भारतीय न्यायालय के फैसलों का इतिहास खंगालने जाएंगे तो ऐसी सैकड़ों कहानियां मिलेंगी, जो आपको दुख और शर्मिंदगी से भर सकती हैं. इसलिए फिलहाल इतिहास को रहने देते हैं और अभी की बात करते हैं. ये साल 2020 है. कोई ऐसा दिन नहीं गुजरता, जब दुनिया के किसी-न-किसी कोने से कोई ऐसी खबर न आए, जिसका संबंध औरतों के लिए न्याय और बराबरी से हो. दुनिया का हर देश अपने सैकड़ों साल पुराने कानून बदल रहा है, अपना संविधान बदल रहा है. जहां नहीं बदल रहा, वहां बदलने के लिए औरतें लड़ रही हैं. और इन बदलावों के बरक्स हमारे यहां ये हो रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र रोज चार कदम पीछे लौट रहा है. अब तो 12 साल की बच्ची की छाती दबोच लेना भी अपराध नहीं है, अगर वह कपड़े के ऊपर से दबोची गई हो. यानी 12 साल की उम्र में मेरे साथ जो हुआ था और इस देश की तकरीबन हर लड़की के साथ बाजार में, मेले में, बनारस की विश्वनाथ वाली गली में, स्कूल के रास्ते में, रिश्तेदार के घर में, सड़क में, दुकान में जो हुआ था, वो सब अपराध नहीं था. सही ही है. अपराध बोध में तो हम ही मरे हैं सारी उमर. बच्ची की छातियां दबोचने वालों को कब अपने किए पर अपराध बोध हुआ या शर्म आई. अब तो माननीय हाईकोर्ट ने भी कह दिया है- अपराध की कोई बात ही नहीं है. कपड़े के ऊपर से छातियां छू सकते हैं.
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