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“पर्यावरण और लचीली कृषि को पुनर्जीवित करने के लिए प्राकृतिक खेती“ पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, राज्यपाल सुश्री अनुसुईया उइके ने किया उद्घाटन

सुश्री अनुसुईया उइके राज्यपाल मणिपुर ने आज इंफाल में केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय में “पर्यावरण और लचीली कृषि को पुनर्जीवित करने के लिए प्राकृतिक खेती“ पर एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन किया। इस अवसर पर प्राकृतिक कृषि उत्पादों की एक प्रदर्शनी का शुभारंभ भी किया। इस कार्यक्रम में श्री गोविन्दास कोंथौजम, मिनिस्टर, पी डब्ल्यू डी एवं यूथ अफेयर एण्ड स्पोर्ट, मणिपुर सरकार, श्री निशिकांत सिंह सपम एम. एल. ए, मणिपुर , डा. अनुपम मिश्र, वाईस चांसलर, सेन्ट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, इम्फाल, डा. ए. के. सिंह, वाईस चान्सलर, रानी लक्ष्मीबाई सेन्ट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, झाँसी, डा. राजेंद्र प्रसाद, सेन्ट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, पूसा, डा. पी. एस. पाण्डेय, वाईस चान्सलर समस्तीपुर, डा. एस. बसंता सिंह, डायरेक्टर सेन्ट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, इम्फाल, डा. इंदिरा सारंगथेम, डीन, एग्रीकल्चर कालेज, सेन्ट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, इम्फाल, देश-विदेश से आए हुए एग्रीकल्चर साइंटिस्ट उपस्थित थे। इस कार्यक्रम को उन्होंने संबोधित करते हुए कहा कि हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर नीति आयोग ने सर्वप्रथम इस विषय पर एक राष्ट्रीय परामर्श गोष्ठी का 29-30 सितम्बर 2020 को आयोजन किया था जिसमें भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति पर गहन चर्चा की गई। इसमें देश भर के कृषि विशेषज्ञों ने भाग लिया। इसके बाद 9 अक्टूबर 2020 को दूसरी राष्ट्रीय स्तर की गोष्ठी का आयोजन किया गया। और अब इस प्रकार के सम्मेलन कर इस दिशा में प्रयास किये जा रहे हैं। साथ ही प्राकृतिक कृषि के लाभ बताते हुए इस सम्मेलन में विचार विमर्श उपरांत प्राप्त हुए सुझावों से अवगत कराने का आव्हान किया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि आज मुझे कृषि वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों के बीच भारत के सबसे पुराने केन्द्रीय कृषि विश्वविद्दालय, इम्फ़ाल में प्राकृतिक खेती जैसे सामयिक विषय के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में उपस्थित होकर अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का शीर्षक है ;पर्यावरण को पुनर्जीवित करने और लचीली कृषि के लिए प्राकृतिक खेती) जो कि आज से 3 दिनों तक चलेगा जिसमें महत्वपूर्ण चिंतन होगा। यह सही है कि आधुनिक खेती ने उत्पादन बढ़ाया है एवं देश को अनाज उत्पादन में आत्म-निर्भर भी बनाया है जिसके फलस्वरूप अपनी आवश्यकता की पूर्ति के बाद हम चावल और गेहूं का निर्यात भी कर रहे हैं लेकिन साथ ही साथ अब हम कई समस्याओं का भी सामना कर रहे हैं। आज हमारी मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है, सिंचाई के लिए बहुत अधिक जल की आवश्यकता पड़ रही है, कीट – नाशकों की वजह से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इसके साथ-साथ जैव – विविधता में भी कमी देखी जा रही है। इन सब बातों को ध्यान में रख कर हमारे देश के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की पहल पर नीति आयोग ने सर्वप्रथम इस विषय पर एक राष्ट्रीय परामर्श गोष्ठी का 29-30 सितम्बर 2020 को आयोजन किया था जिसमें भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति पर गहन चर्चा की गई। इसमें देश भर के कृषि विशेषज्ञों ने भाग लिया। इसके बाद 9 अक्टूबर 2020 को दूसरी राष्ट्रीय स्तर की गोष्ठी का आयोजन किया गया। वृहद् चर्चा के बाद यह निर्णय लिया गया कि प्राकृतिक खेती भविष्य की चुनौतियों को स्वीकार कर एक टिकाऊ खेती का विकल्प हो सकती है। फिर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली ने यूजी और पीजी स्तर पर प्राकृतिक खेती के पाठ्यक्रम एवं सामग्री का विकास करने के लिए 31 मार्च 2022 को एक दस सदस्यीय समिति का गठन किया जिसके सदस्य सचिव इस विश्वविद्यालय के कुलपति डा.अनुपम मिश्र को नियुक्त किया गया। विश्वविद्यालय में इसी सिलसिले में पिछले साल दो दिवसीय गोष्ठी 24-25 जून 2022 को इम्फाल में आयोजित हुई। हमारे देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना एवं भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति जैसी योजनाएं सरकार द्वारा चलाई जा रही हैं। इसके लिए भारत सरकार द्वारा पिछले वर्ष 4 फरवरी 22 तक 4980.99 लाख रूपए इन योजनाओं में निर्गत किए। हमारे देश में जैविक खेती करने वाले किसानों की कुल संख्या 4.43 मिलियन है। इस साल के कृषि बजट में सरकार ने अगले तीन साल में एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती अपनाने हेतु सहायता देने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए 10,000 बायो इनपुट रिसोर्स सेंटर देश के विभिन्न भागों में खोले जाएँगे । देश के अन्नदाता किसानों को कृषि निवेशों पर बहुत अधिक खर्च करना पड़ रहा है तथा खेती में लागत बढ़ने की वजह से किसान को घाटा हो रहा है और शायद यही कारण है कि किसान कर्ज के बोझ से दबता चला जा रहा है। हम आप सभी जानते हैं कि देश के अनेक भागों में कर्ज के बोझ एवं अपने भविष्य की चिन्ता से ग्रसित होकर किसान परेशान हैं जो कि गंभीरता से विचार का विषय है। प्राकृतिक खेती हमारे देश में अपनाई जाने वाली कृषि की प्राचीन पद्धति है जो मूलतः गो-आधारित है। यह कृषि प्रणाली भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाए रखती है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक कीटनाशक का उपयोग नहीं किया जाता है। आज खेती में काफी नुकसान देखने को मिल रहा है। जिसका मुख्य कारण हानिकारक कीट-नाशकों का अधिक उपयोग है। कीट-नाशकों की अधिक मात्रा देने के परिणामस्वरूप हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। ऐसी स्थिति में खेती के सारे उत्पाद जो हमारे आहार हैं हमारे शरीर में अनेक रोग पैदा कर रहे हैं। यदि हमारा आहार ही हानिकारक रसायनों से दूषित होगा तो हम अपने अच्छे स्वास्थ्य की कामना कैसे कर सकते हैं? मुझे खुशी है कि आज इस सम्मेलन में देश ही नहीं अपितु विदेशों के भी कृषि वैज्ञानिक भाग ले रहे हैं जो खेती की बारीकियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। हमारे देश में हरित क्रांति आने के बाद रासायनिक खादों एवं कीट-नाशकों के अनवरत उपयोग से हमारी भूमि की उर्वरा शक्ति दिन-प्रतिदिन कम हो रही है और मिट्टी के पोषक तत्वों का संतुलन भी बिगड़ रहा है। इसको देखते हुए जैविक खाद का खेती में उपयोग बहुत आवश्यक हो गया है जिसके लिए प्राकृतिक खेती जैसे विकल्प की ओर ध्यानाकर्षण आज समय की मांग है । सन 2017 में भोजन के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसके अनुसार कृषि विश्व की सम्पूर्ण आबादी को भोजन उपलब्ध कराने और उपयुक्त पोषण करने के लिए पर्याप्त उपज देने में सक्षम है और यह प्राकृतिक खेती अपनाकर संभव है। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जहाँ गांव प्राकृतिक खेती की ओर आगे बढ़ते हुए ग्रामीण जीवन में बदलाव ला रहे हैं। इन गांवों को चिन्हित कर प्रोत्साहित करने की जरूरत है। आधुनिक खेती पूर्णतया बाहरी निवेशों एवं सरकारी सहायता पर निर्भर है वहीं प्राकृतिक खेती स्थानीय एवं फसल अवशेषों तथा गो-आधारित पदार्थों पर की जाती है। यही कारण है कि हम अपनी संस्कृति में गाय को को माँ का दर्जा देते आ रहे हैं। भारत बड़ी मात्रा में उर्वरकों पर सब्सिडी देता है। यह सब्सिडी वर्ष 1976-77 में 60 करोड़ थी जो अब बढ़कर 75 हजार करोड़ रूपए हो गई है। देश में कुल 181.95 मिलियन हेक्टेयर भूमि खेती योग्य है जिसमें से मात्र 23.02 मिलियन हेक्टेयर भूमि में प्राकृतिक खेती की जाती है जो कुल कृषि योग्य भूमि का मात्र 1.27 प्रतिशत है इसे बढाने की आवश्यकता है। अतः मैं आपसे अनुरोध करती हॅूं कि इस सम्मेलन में विभिन्न पहलुओं पर गहनता से मंथन करें और कुछ ऐसा उपाए निकाले जिससे प्राकृतिक खेती का विस्तार किया जा सके । अंत में, मैं इस विश्वविद्यालय के कुलपति, डा.अनुपम मिश्रा और उनकी सम्पूर्ण टीम को बधाई देना चाहती हूँ कि वे इस ज्वलंत विषय पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन इस विश्वविद्यालय में करा रहे हैं। मैं इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के सफल होने की कामना करती हूँ।

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