आज महावीर जयंती है. आज भक्त भगवान महावीर की पूजा-अर्चना कर रहे हैं. भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे. हर साल महावीर जयंती के दिन जैन लोग शोभा यात्राएं निकालते हैं और मंदिर में पूजा-पाठ करते हैं और भोग लगाते हैं. लेकिन इस बार कोरोना की घातक दूसरी लहर के चलते मंदिर जाना और शोभायात्रा निकालना खतरे से खाली नहीं है. ऐसे में घर में रहकर ही महावीर जयंती मनाएं और भगवान महावीर को स्मरण करें. भगवान महावीर ने विश्व को सत्य, अहिंसा के कई उपदेश दिए. जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए,- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य. उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धान्त के बारे में भी बताया. आज महावीर जयंती के मौके पर हम आपके लिए webduniya के साभार से लेकर आए हैं भगवान महावीर के जीवन के कुछ खास प्रसंग …
भगवान महावीर के जीवन के प्रसंग:
1. प्रसंग 1 –
पुष्कलावती नामक देश के एक घने वन में भीलों की एक बस्ती थी. उनके सरदार का नाम पुरूरवा था. उसकी पत्नी का नाम कालिका था. दोनों वन में घात लगाकर बैठ जाते और आते-जाते यात्रियों को लूटकर उन्हें मार डालते. यही उनका काम था.
एक बार सागरसेन नामक एक जैनाचार्य उस वन से गुजरे तो पुरूरवा ने उन्हें मारने के लिए धनुष तान लिया. ज्यों ही वह तीर छोड़ने को हुआ, कालिका ने उसे रोक लिया-
‘स्वामी! इनका तेज देखकर लगता है, ये कोई देवपुरुष हैं. ये तो बिना मारे ही हमारा घर अन्न-धन से भर सकते हैं.’
पुरूरवा को पत्नी की बाच जंच गई. दोनों मुनि के निकट पहुंचे तो उनका दुष्टवत व्यवहार स्वमेव शांत हो गया और वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए.
मुनि ने अवधिज्ञान से भांप लिया कि वह भील ही 24वें तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने वाला है अत: उसके कल्याण हेतु उन्होंने उसे अहिंसा का उपदेश दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने को कहा.
भील ने उनकी बात को गांठ में बांध लिया और अहिंसा का व्रत लेकर अपना बाकी जीवन परोपकार में बिता दिया.
2. प्रसंग 2
एक बार की बात है, घूमते हुए महावीर वेगवती नदी के किनारे स्थित एक उजाड़ गांव के निकट पहुंचे. गांव के बाहर एक टीले पर एक मंदिर बना हुआ था. उसके चारों ओर हड्डियों और कंकालों के ढेर लगे थे. महावीर ने सोचा, यह स्थान उनकी साधना के लिए ठीक रहेगा. तभी कुछ ग्रामीण वहां से गुजरे और उनसे बोले- यहां अधिक देर मत ठहरो मुनिराज. यहां जो भी आता है, उसे मंदिर में रहने वाला दैत्य शूलपाणि चट कर जाता है. ये हड्डियां ऐसे ही अभागे लोगों की हैं. यह गांव कभी भरापूरा हुआ करता था. उस दैत्य ने इसे उजाड़कर रख दिया है.’
यह कहकर ग्रामीण तेज कदमों से वहां से चले गए. महावीर ने ग्रामवासियों के मन का भय दूर करने की ठानी और उस मंदिर के प्रांगण में एक स्थान पर खड़े होकर ध्यान करने लगे. जल्दी ही वे अंतरकेंद्रित हो गए.
अंधेरा घिरते ही वातावरण में भयंकर गुर्राहट गूंजने लगी. हाथ में भाला लिए शूलपाणि दैत्य वहां प्रकट हुआ और महावीर को सुलगते नेत्रों से घूरते हुए भयंकर क्रोध से गुर्राने लगा. उसे आश्चर्य हो रहा था कि उससे भयभीत हुए बिना उसके सामने खड़े होकर ही एक मानव ध्यान-साधना में लीन था. वह मुंह से गड़गड़ाहट का शोर करते हुए मंदिर की दीवारों को हिलाने लगा. लेकिन महावीर मुनि न तो भयभीत हुए, न ही उनकी तंद्रा टूटी. अपने छल-बल से शूलपाणि ने वहां एक पागल हाथी प्रकट किया. वह महावीर को अपनी पैनी सूंड चुभोने लगा. फिर उन्हें उठाकर चारों ओर घुमाने लगा.
जब महावीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो वहां एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ. वह तीखे नख और दांतों से उन पर प्रहार करने लगा. अगली बार एक भयंकर विषधर उन पर विष उगलने लगा. इतने पर भी महावीर ध्यानमग्न रहे तो शूलपाणि भाले की नुकीली नोक उनकी आंखों, कान, नाक, गर्दन और सिर में चुभोने लगा. लेकिन महावीर ने शरीर से बिलकुल संबंध-विच्छेद कर लिया था अत: उन्हें जरा दर्द का अनुभव नहीं हुआ. यह सहनशीलता की पराकाष्ठा थी, जो केवल तीर्थंकर में ही हो सकती थी.
शूलपाणि समझ गया कि वह मनुष्य निश्चित ही कोई दिव्य प्राणी है. वह भय से थर्राने लगा. तभी महावीर के शरीर से एक दिव्य आभा निकलकर दैत्य के शरीर में समा गई और देखते ही देखते क्रोध पिघल गया, गर्व चूर-चूर हो गया. वह महावीर के चरणों में लोट गया और क्षमा मांगने लगा.
महावीर ने नेत्र खोले और उसे आशीर्वाद देते हुए करुणापूर्ण स्वर में बोले- ‘शूलपाणि! क्रोध से क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रेम से प्रेम की. यदि तुम किसी को भयभीत न करो तो हर भय से मुक्त रहोगे. इसलिए क्रोध की विष-बेल को नष्ट कर दो.’ शूलपाणि के नेत्र खुल गए. उसका जीवन बदल गया. (Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. Hindi news18 इनकी पुष्टि नहीं करता है. इन पर अमल करने से पहले संबधित विशेषज्ञ से संपर्क करें)













