गुरु के कई रूप हैं जो अपने शिष्यों से स्नेह रखते हैं। कभी पिता, कभी भाई, कभी मित्र बनकर शिष्यों का मित्र बन जाता है। गुरु की कोई सीमा नहीं है। अपने शिष्य को उच्च पद पर देखना एक गुरु का सबसे बड़ा सपना होता है। यदि शिष्य असफल हो जाता है, तो गुरु उसे निराश हुए बिना खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसे ही मां भगवती के उपासक एवं भागवताचार्य और त्रिकालदर्शी (चाउर वाले बाबा)चाय वाले बाबा आचार्य पंडित नरेन्द्र नयन शास्त्री जी भी कई रूपों में अपने शिष्यों से स्नेह रखते हैं। भारतीय अध्यात्म में गुरु का अत्यंत महत्व है। सच बात तो यह है कि आदमी कितने भी अध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ ले जब तक उसे गुरु का सानिध्य या नाम के अभाव में ज्ञान कभी नहीं मिलेगा वह कभी इस संसार का रहस्य समझ नहीं पायेगा। इसके लिये यह भी शर्त है कि गुरु को त्यागी और निष्कामी होना चाहिये। दूसरी बात यह कि गुरु भले ही कोई आश्रम वगैरह न चलाता हो पर अगर उसके पास ज्ञान है तो वही अपने शिष्य की सहायता कर सकता है। यह जरूरी नही है कि गुरु सन्यासी हो, अगर वह गृहस्थ भी हो तो उसमें अपने त्याग का भाव होना चाहिये। त्याग का अर्थ संसार का त्याग नहीं बल्कि अपने स्वाभाविक तथा नित्य कर्मों में लिप्त रहते हुए विषयों में आसक्ति रहित होने से है।
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कभी पिता, कभी भाई, कभी मित्र बनकर शिष्यों का मित्र बन जाता है गुरु
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