देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे। उन्होंने युवाओं में आजादी की एक ऐसी चिंगारी सुलगाई, जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाकर रख दी।नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कहे शब्दों, उनके दिए नारों ने देशवासियों के दिलों में आजादी की न बुझने वाली लौ जगाई थी।
यही कारण था कि नेताजी के एक आह्वान पर हजारों युवा आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। आजाद हिंद फौज में हरियाणा के सोनीपत के स्वतंत्रता सेनानियों ने भर्ती होकर आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालांकि अब जिले के स्वतंत्रता सेनानी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी बहादुरी की दास्तां आज भी युवाओं को प्रेरित करती है। इन सेनानियों की वीरांगनाओं व परिजनों ने आजादी से पहले की कुछ यादें साझा कीं।
ओडिशा के कटक में 23 जनवरी 1897 को जन्मे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना कर अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई को एक नई धार दी थी। नेताजी ने नारा दिया था कि तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। जिसके बाद सोनीपत के राठधना, खांडा, रोहणा, बरोणा, बरोदा सहित विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों से आजादी के मतवालों ने आजाद हिंद फौज में भर्ती होकर अंग्रेज सरकार के खिलाफ हथियार उठा लिए थे।
5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमांडर के रूप में नेताजी ने सेना को संबोधित करते हुए दिल्ली चलो का नारा दिया था, जिसके बाद सोनीपत के स्वतंत्रता सेनानी लड़ते-लड़ते 18 मार्च 1944 को कोहिमा व इम्फाल के मैदानी क्षेत्रों में पहुंच गए थे।
हालांकि बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध का पासा पलटने व जापान की हार के बाद आजादी के इन मतवालों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था और इन्हें ब्लैकलिस्ट कर दिया था। बाद में इन योद्धाओं को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिया गया।
नेताजी के सुरक्षा दस्ते में शामिल होकर आजादी की लड़ाई में शामिल होने वाले खांडा गांव के स्वतंत्रता सेनानी कुंदन सिंह का चार साल पहले निधन हो गया था। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के साथ ही सादगी के साथ जीवन व्यतीत करने के लिए भी जाना जाता है। कुंदन सिंह का जन्म जनवरी 1919 में खांडा गांव में हुआ। वर्ष 1938 में वे सेना में भर्ती हुए थे। 1940 में वे आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए थे। वर्ष 1942 में सिंगापुर में, इसके बाद बर्मा, वियतनाम से होते हुए त्रिपुरा-इम्फाल पहुंचे। वर्ष 1946 में वर्दी उतारकर उन्हें केवल रेल पास देकर वहां से छोड़ दिया गया।
7 वर्ष वे बंधक बने रहे, और लौटने के बाद दिल्ली स्थित लालकिला कोर्ट में उन्होंने अपने मुकदमे जीते। फरवरी 2017 में 98 वर्ष की आयु में हृदयगति रुकने से उनका निधन हो गया था। कुंदन सिंह दहिया की धर्मपत्नी केसर देवी का निधन करीब 16 वर्ष पहले हो गया था। कुंदन सिंह के तीन बेटों में से महेंद्र सिंह का निधन वर्ष 2007, जगबीर का निधन वर्ष 2006 में हो चुका है। उनका तीसरा बेटा फूल सिंह हैं। कुंदन सिंह के आठ पौत्र, जिनमें राजेश, देवेंद्र, जोगेंद्र, बिजेंद्र, सुनील, अनिल सीटू हैं। एक पौत्र मनोज का निधन हो चुका है, जबकि 6 पौत्री हैं, जिनमें कविता, पिंकी, अनीता, पूजा, अंजू, मोनिका हैं।
कुंदन सिंह ने आजाद हिंद फौज का हिस्सा बनने के बाद नेताजी के दिल में भी खास जगह बना ली थी। नेताजी ने जब अपनी सुरक्षा के लिए बॉडीगार्ड बटालियन का गठन किया था तो इसमें कुंदन सिंह को उनकी काबिलियत और देशभक्ति के चलते ही उसमें जगह दी थी। कुंदन सिंह को मिले चार मेडल को वह हमेशा अपने पास रखते थे।
नेताजी ने देश को आजाद कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। अंग्रेजों की सेना में शामिल सैकड़ों युवाओं ने अंग्रेजी सेना की 16 रुपये महीना की नौकरी छोड़ आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए थे। इसमें गांव बरोणा निवासी मेहर सिंह भी भर्ती हुए थे, जो विषम परिस्थितियों में भी मोर्चे पर रागिनियों के माध्यम से सैनिकों का हौसला बढ़ाते थे। नेताजी को जब उनकी काबिलियत का पता लगा तो उन्होंने मेहर सिंह को आजादी के बाद राष्ट्र कवि का दर्जा देने की बात कही थी।
देश का 66वां आजादी का जश्न मनाने के चंद दिनों के बाद संसार को छोड़कर गए देवराज ने आजाद हिंद फौज का तोपखाना संभाला था। आजाद हिंद फौज में तोपखाने को मजबूत करने वाले देवराज शुरुआत में द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़े थे। सिंगापुर में लड़ाई के दौरान देवराज सहित सैकड़ों भारतीय सैनिकों को जापान द्वारा बंदी बना लिया गया था। नेताजी ने आजाद हिंद फौज की स्थापना के बाद देवराज व उसके साथियों को जेल से निकलवाकर अपनी सेना में भर्ती कर लिया था। देवराज ने आजाद हिंद फौज में तोपखाने को संभाला और अपनी काबिलियत साबित की। देवराज की काबिलियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद भी देवराज ने जवानों को हथियारों का प्रशिक्षण दिया था।
चार साल तक पता ही नहीं था, जीवित हैं या नहीं
गांव सलीमसर माजरा निवासी स्वतंत्रता सेनानी रामसिंह पुत्र बख्शी राम की वीरांगना दयाकौर ने अपने पति के नेताजी के साथ बिताए समय को साझा करते हुए कहा कि रामसिंह 1940 में अंग्रेजी सेना में भर्ती हुए थे, लेकिन यहां से आजाद हिंद फौज में चले गए थे। वे जापान, बर्मा व इम्फाल में नेताजी के साथ ही रहे थे। बर्मा की लड़ाई में आजाद हिंद फौज के महज 100 जवानों ने अंग्रेजों के करीब 800 सैनिकों को मात दे दी थी। मोर्चे के दौरान नेताजी भी सैनिकों के साथ रहते थे। जब वे नेताजी को कहते थे कि आप पीछे हटो, आपकी सेना को जरूरत है तो नेताजी कहते थे-अंग्रेजों के पास ऐसा एमुनेशन नहीं, जो मुझे मार सके। उनकी यही बातें सैनिकों में जोश भर्ती थीं।
सलीमसर माजरा निवासी स्वतंत्रता सेनानी रामसिंह के परिवार की फाइल फोटो।
इम्फाल में उन्हें गिरफ्तार कर कोलकाता जेल भेज दिया गया था। दयाकौर ने बताया कि सेना में भर्ती होने के बाद रामसिंह का 5 साल कुछ पता नहीं था, न चिट्ठी-पत्री आई। हमें यह भी पता नहीं था कि वे जीवित भी हैं या नहीं। 1945 के बाद वे गांव लौटे। उसके बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की। बाद में वे अध्यापक बने। 1980 में उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान मिला। 29 मई 2011 में बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। रामसिंह की पांच लड़कियां व दो लड़के हैं। इनमें दो लड़कियों की बीमारी से मौत हो चुकी है। स्वतंत्रता सेनानी का परिवार अब सोनीपत के सेक्टर 23 मैं रहता है।
मूलरूप से गांव लल्हेड़ी फिलहाल सेक्टर-23 निवासी केसर देवी ने बताया कि मेरे पति स्वतंत्रता सेनानी रामसिंह ने नेताजी के साथ आजादी की लड़ाई लड़ी और जेल भी गए। रामसिंह का जन्म 23 जनवरी 1920 को किसान सीताराम के घर हुआ था। 18 वर्ष की आयु में वे अंग्रेजी सेना में भर्ती हुए। गांधी जी के आह्वान पर द्वितीय विश्व युद्ध में हिस्सा लिया। 1943 में अंग्रेज सेना से आजाद हिंद फौज में बतौर नायक खुफिया विभाग भर्ती हुए।
वीरांगना केसर देवी परिवार के साथ। संवाद
1943 से 1945 तक नेताजी के नेतृत्व में देश की आजादी के लिए लड़े। 1945 में युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा की जिगरगच्चा जेल में कैद कर दिया था। यहां अनेक यातनाएं दी गईं। वहां से आजादी के बाद ही उन्हें रिहाई मिली। 1960 में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस में भर्ती हुए। 1962 में चीन और 1965 व 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में अपनी वीरता दिखाई। 1979 में सेवानिवृत्त हुए। 22 अगस्त 2005 में करीब 65 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया था। केसर देवी ने बताया कि उनकी पांच लड़कियां व एक लड़का हैं।













