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शराब पिलाते, फिर पड़ते हैं जूते, कब से चली आ रही परंपरा?

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“किसी को होली खेलने पर मजबूर न करें. ऐसा न हो कि बिलारी में फिर हंगामा हो जाए, पहले दो बार हो चुका है. अबकी बार हुआ तो मैं चेतावनी दे रहा हूं- दंगा होगा, फसाद होगा. ” ये बोल हैं, एक मौलाना के. होली को लेकर मुरादाबाद के बेलारी थाना में हुई बैठक में मौलाना सदाकत हुसैन ने ये धमकी दी. बैठक शांति समिति की और धमकी दंगे की. मुरादाबाद एसपी ने कार्रवाई की बात कही है. उधर, शाहजहांपुर में होलीके दिन हर साल की तरह इस बार भी लाट साहब का जुलूस निकाला जाएगा. मस्जिद-मजारों पर रंग की छींटे न पड़े, इसको लेकर एहतियातन तिरपाल से ढका जा रहा है. कुछ और शहरों में भी मस्जिदों को पन्नी से कवर करने की खबरें आ रही हैं. अब सवाल है कि ये कौन-से लाट साहब हैं, होली पर जिनका जुलूस निकाला जाता है, ये कैसी परंपरा है और कब से चली आ रही है? आइए जानते हैं विस्तार से.

लाट साहब यानी ब्रिटिश शासन के क्रूर अफसर. होली पर जुलूस निकाल कर उन्हीं का विरोध किया जाता है. ये लाट साहब, होली के नवाब होते हैं. जूतों की माला पहनाई जाती है, पहले शराब पिलाई जाती है और फिर गुलाल के साथ उन पर चप्पल भी बरसाए जाते हैं. उन्हें बैलगाड़ी पर बिठाकर पूरा शहर घुमाया जाता है. शाहजहांपुर की बात करें तो हर साल होली से पहले स्थानीय लोग मिलकर एक ‘लाट साहब’ या ‘नवाब’ चुनते हैं. एक दिन पहले से ही उनकी खातिरदारी शुरू हो जाती है. उन्हें नशा कराया जाता है. होली के दिन जुलूस पहले शहर कोतवाली पहुंचता है, जहां उसे सलामी दी जाती है. फिर ये जुलूस शहर के जेल रोड से थाना सदर बाजार और टाउन हॉल मंदिर होते हुए गुजरता है. शाहजहांपुर में एक और लाट साहब होते हैं. बड़े लाट साहब के अलावा छोटे लाट साहब का भी जुलूस निकाला जाता है. इसका अलग रूट होता है. जुलूस को लेकर प्रशासन पूरी तरह सतर्क रहता है, ताकि कोई झगड़ा वगैरह न हो. दो समुदायों के बीच कोई विवाद न हो.

कब से चली आ रही परंपरा? -लाट साहब का जुलूस निकालने की परंपरा 18वीं सदी की ही बताई जाती है. शाहजहांपुर में एक प्रमुख दैनिक अखबार के ब्यूरो चीफ बताते हैं कि शाहजहांपुर के अंतिम नवाब अब्दुल्ला खां ने 1746 के आसपास यह परंपरा शुरू की थी, जब किले पर फिर से कब्जा जमाया था. किला मोहल्ला में उन्होंने एक रंग महल बनवाया, जिसके नाम पर मोहल्ले का नाम पड़ा. वहां अब्दुल्ला खां हर साल होली खेलते थे. तब हाथी-घोड़े के साथ जुलूस निकाला जाता था. अब्दुल्ला के निधन के बाद भी लोग जुलूस निकालते रहे. बाद में ब्रिटिश राज में होली पर नवाब का जुलूस निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बावजूद लोग जुलूस निकालते रहे. बस उनका तरीका और उद्देश्य बदल गया. जुलूस अब अंग्रेजों के विरोध में निकाला जाने लगा और नवाब साहब की बजाय लाट साहब का जुलूस कहा जाने लगा. आजादी के बाद जुलूस में हुड़दंगई शामिल हो गई. अंग्रेजों पर गुस्सा निकालने के लिए लोग जूते-चप्पल, झाड़ू वगैरह से लाट साहब की धुलाई करने लगे.

लाट साहब बनने की मजबूरी! – शाहजहांपुर के रहनेवाले राजेंद्र सिंह राठौड़ बताते हैं कि हर साल लाट साहब के लिए किसी व्यक्ति को चुना जाता है. अमूमन गरीब परिवार से ही कोई लाट साहब बनने को तैयार होता है. कारण कि इस काम के लिए उसे अच्छे पैसे भी दिए जाते हैं. वरना कौन जूते-चप्पल खाने को तैयार हो भला! उन्होंने बताया, “लाट साहब किसे चुना जाएगा और वो किस जाति-धर्म का होगा, इसे गुप्त रखा जाता है, ताकि किसी समुदाय की भावनाएं आहत न हों.” हालांकि लाट साहब के साथ दुर्व्यवहार सांकेतिक तौर पर किया जाता है. यह दिखाने की कोशिश होती है कि अंग्रेज अफसर आज होते तो उनका यही हाल किया जाता. लोग इसे जश्न के तौर पर मनाते हैं. हर साल हजारों लोग इस जश्न में शामिल होते हैं. हालांकि अलग-अलग समुदायों के कुछ लोग इस परंपरा का विरोध भी करते रहे हैं.

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