Thursday, December 11

हिंदू धर्म शास्त्रों में यह विधान है कि व्यक्ति भोजन करने से पहले भगवान को भोग लगाये, उसके बाद ही फिर भोजन करें. शुद्ध और उचित आहार भगवान की उपासना का एक अंग है. भोजन करते समय किसी भी अपवित्र खाद्य पदार्थ का ग्रहण करना निषिद्ध है. यही कारण है कि भोजन करने से पूर्व भगवान को भोग लगाने का विधान है. जिससे कि हम शुद्ध और उचित आहार ग्रहण कर सकें. अथर्ववेद में कहा गया है कि भोजन को हमेशा भगवान को अर्पित करके ही करना चाहिए. भोजन करने से पहले हाथ, पैर और मुंह को अच्छी तरह से धो लेना चाहिए. भगवान के भोग लगाने का केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक आधार भी है. अगर आप भोजन को क्रोध, नाराजगी और उतावले पन में करते है, तो यह भोजन सुपाच्य नहीं होगा. जिसका शरीर और मन पर नकारात्मक प्रभाव पडेगा. कई हिंदू परिवारों में ऐसी व्यवस्था है कि भोजन बन जाने के बाद सबसे पहले भगवान को भोग लगाते हैं. उसके बाद ही घर परिवार के सभी लोग यहां तक बच्चे और बूढ़े भी भोजन करते हैं. शास्त्रों में इस बात को धान-दोष (अन्न का कुप्रभाव) दूर करने के लिए आवश्यक बताया गया है. भाव शुद्धि के लिए भी यह जरूरी है. हालांकि कतिपय लोग इस बात को अंधविश्वास करार देते हैं. एक कहानी के मुताबिक ऐसे ही एक व्यक्ति ने एक बार एक धार्मिक कार्यक्रम में जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से यह प्रश्न किया कि भगवान को भोग लगाने से भगवान तो उस भोजन को खाते नहीं है और नहीं ही उसके रूप, रंग या स्वरूप में कोई परिवर्तन होता है. तो क्या भोग लगाना एक अंध विश्वास नहीं है?
जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी ने समझाते हुए कहा कि जिस प्रकार आप मंदिर जाते हो तो प्रसाद के लिए ले गई चीज मंदिर में भगवान के चरणों में अर्पित करते हो. अर्पित करने के बाद जब आप उस अर्पित की गई चीज को वापस लेते हो तो भी उसके आकार -प्रकार और स्वरूप में कोई परिवर्तन हुए बिना प्रसाद बन जाता है ठीक उसी प्रकार यह भोग भी प्रसाद बन जाता है.

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