बृजेश सिंह, अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, मुन्ना बजरंगी, प्रकाश शुक्ला जैसे कई माफियाओं को आप जानते हैं लेकिन राजनीति का एक ऐसा नाम जो इन सभी माफियाओं पर भारी था, उस व्यक्ति का नाम आते ही माफियाओं की सिट्टी-पिट्टी गायब हो जाती थी। जो राजनाथ सिंह, मायावती और मुलायम सिंह यादव के मंत्री मंडल में पांच बार केंद्रीय मंत्री रहे और ६ बार विधायक भी रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे बड़े–बड़े दबंग माफिया और राजनीतिज्ञ हुए हैं, जिनकी पूरे प्रदेश में तूती बोलती थी। बड़ा गैंगस्टर बनने का ख्वाब पालनेवाले कई ऐसे डॉन हुए जो हरीशंकर तिवारी को अपना आदर्श मानकर उनकी तरह बनना चाहते थे। इसीलिए कहते हैं कि उत्तर भारत के माफियाओ की बात हो और हरिशंकर तिवारी का नाम न आए ऐसा संभव ही नहीं है। हरिशंकर तिवारी उत्तर प्रदेश के एक ऐसे गैंगस्टर माफिया व राजनीतिज्ञ हैं, जिन्होंने सबसे पहले जेल में रहते हुए चुनाव जीता था। यहां यह कहना बिलकुल सही होगा कि इनके नाम के आगे माफिया, गैंगस्टर शब्द लगने ही नहीं चाहिए। उत्तर भारत की राजनीति में बड़ा इतिहास बनानेवाले हरिशंकर तिवारी पर मामले दर्ज नहीं हैं ऐसा नहीं है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से ही देश की सियासत में पहली बार अपराधीकरण की शुरुआत हुई। दरअसल, ७० के दशक में इमरजेंसी का दौर था। हरिशंकर तिवारी और बलवंत सिंह छात्र नेता हुए। दोनों में ही वर्चस्व को लेकर जंग चल रही थी। इसी दौर में गोरखपुर यूनिवर्सिटी में वीरेंद्र प्रताप शाही की एंट्री होती है। वीरेंद्र प्रताप शाही इससे पहले बस्ती में रहा करते थे और वहां के पूर्व विधायक राम किंकर सिंह के करीबी माने जाते थे। लेकिन बाद में राम किंकर से संबंध खराब हो गए और बस्ती छोड़कर वीरेंद्र शाही गोरखपुर आ गए। इसी बीच १९७८ में बलवंत सिंह की हत्या हो गई। आरोप लगा कि हत्या उसके करीबी दोस्त रुदल प्रताप सिंह ने की, जो हरिशंकर तिवारी का भी करीबी बताया गया। इस हत्याकांड के बाद वीरेंद्र शाही ने मोर्चा संभाला और बलवंत की हत्या के लिए हरिशंकर तिवारी के खिलाफ वैंâट थाने में केस दर्ज करवा दिया। इस केस के बाद से ही शाही और तिवारी गैंग में गैंगवार की शुरुआत मानी जाती है। हरिशंकर तिवारी के करीबी मृत्युंजय दुबे की वीरेंद्र शाही से झड़प के दौरान पैर में गोली लगने की खबर आती है। बाद में मृत्युंजय की गैंगरीन के कारण मौत हो जाती है। इसके बाद वीरेंद्र शाही को खबर मिलती है कि उनके करीबी बेचई पांडेय की गगहा में हत्या हो गई है। शाही के समर्थक डेडबॉडी लेकर लौटते हैं तो इसी दौरान हरिशंकर तिवारी के तीन करीबी लोग रास्ते में मिल जाते हैं। इन तीनों की हत्या हो जाती है। इसके बाद शाही गैंग के सदस्यों की हत्या होती है और गैंगवॉर का सिलसिला चल निकलता है। ये वो दौर था जब पूर्वांचल की राजनीति में एक और युवा काफी तेजी से अपनी पहचान बना रहा था। नाम था रविंद्र सिंह। रविंद्र सिंह १९६७ में गोरखपुर यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। इसके बाद १९७२ में लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। तेज तर्रार छवि के रविंद्र सिंह ने देखते ही देखते गोरखपुर और आसपास के इलाकों में अपनी अच्छी पहचान बना ली थी। इसी को देखते हुए उन्हें जनता पार्टी ने १९७७ में टिकट दिया। अपने पहले ही चुनाव में रविंद्र सिंह कौड़ीराम सीट से विधायक चुने गए। कहा जाता है कि रविंद्र सिंह की वीरेंद्र शाही से करीबी थी, वीरेंद्र धीरे-धीरे रविंद्र सिंह से ही राजनीति के गुर सीख रहे थे। लेकिन तभी रविंद्र सिंह की गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर हत्या हो जाती है। ये वो घटना थी, जिसने छात्र राजनीति में जातिवाद के जहर को अब गोरखपुर सहित आसपास के तमाम जिलों में पैâला दिया। रविंद्र सिंह की हत्या के बाद वीरेंद्र शाही ठाकुरों के नेता बनकर उभरे। इसी दौरान १९८० में महाराजगंज की लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट पर चुनाव हुए और वीरेंद्र शाही ने निर्दलीय पर्चा दाखिल कर दिया। उन्हें चुनाव आयोग की तरफ से शेर चुनाव निशान मिला। वीरेंद्र शाही ने इस चुनाव में जीत दर्ज की और यहीं से उनको शेर-ए-पूर्वांचल कहा जाने लगा। खास बात यह थी १९८० के इस चुनाव में वीरेंद्र शाही ने अमर मणि त्रिपाठी को मात दी। वही अमर मणि त्रिपाठी जो हरिशंकर तिवारी को अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। १९८९ में विधायक बने और बाद में मधुमिता हत्याकांड में सजायाफ्ता वीरेंद्र शाही की ताकत बढ़ रही थी उसी समय उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में जेल में रहकर चुनाव जितने वाले हरिशंकर तिवारी पहले गैंगस्टर (माफिया) राजनीतिज्ञ बने। गोरखपुर के बड़हलगंज के टाडा निवासी हरिशंकर तिवारी जब १९८५ में जेल में थे तब उन्होंने चिल्लूपार से चुनाव लड़ा और जीत गए। छात्र राजनीति में सक्रीय रहे हरिशंकर तिवारी पर १९८० में कई मामले दर्ज हो गए थे। तात्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह की सरकार में उन्हें जेल भेज दिया गया। यह जेल में रहकर आपराधिक व्यक्ति का चुनाव लड़ने और विधायक बनने का पहला मामला था। १९८५ से लगातार वह ६ बार विधायक बनते रहे और पांच बार मंत्री भी रहे। २००७ और २०१२ में चुनाव में हार के बाद उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा। अंग्रेजों के जमाने में यानी १९३३ में जन्मे हरिशंकर तिवारी को ब्राह्मण राजनीति के लिए जाना जाता है। कई अपराधों में हरिशंकर तिवारी का नाम आया लेकिन कोई अपराध साबित नहीं हुआ। १९७० में पटना में जब जे पी आंदोलन अपने उफान पर था तब उसकी आग की लौ गोरखपुर तक पहुंची। गोरखपुर विश्वविद्यालय में यह राजनीति ब्राह्मण और ठाकुर छात्रों की जातिवाद की राजनीति होती थी और एक गुट यानी ब्राह्मण गुट का नेतृव्त उस समय हरि शंकर तिवारी करते थे। १९८५ में जब हरिशंकर तिवारी चिल्लूपुर से चुनाव लड़े तो उसके पहले यह १९८४ में महाराज गंज लोकसभा सीट से चुनाव लड़े और चुनाव हार गए थे। तिवारी ने गोरखपुर मठ के समानांतर तिवारी का हाता बनाकर अपनी शक्ति का परिचय दिया। उनकी संपत्ति को लेकर कई प्रकार के दावे किए जाते रहे हैं।
वर्ष २०२० में हरिशंकर तिवारी एक बार फिर उस समय चर्चा में आये जब सीबीआई ने उनके कई रिस्तेदारों पर छापे मारे।
उत्तर प्रदेश का बेरहम माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला भी उन्हें अपना गुरु मानता था। लोग बताते हैं कि १९९३ में श्रीप्रकाश शुक्ला की बहन के साथ छेड़खानी हुई थी। प्रकाश को जब यह पता चला तो उसने राकेश तिवारी नाम के व्यक्ति की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी। इस हत्या के बाद श्रीप्रकाश का नाम गोरखपुर के गली गली तक गूंजने लगा। यही वह वक्त था जब पुलिस प्रकाश शुक्ला को खोज रही थी अगर उस वक्त के पुलिस अधिकारियों पर विश्वास करें तो बात यह है कि हरिशंकर तिवारी ने ही श्री प्रकाश शुक्ला को बैंकॉक भिजवा दिया था जब मामला थोड़ा ठंडा पड़ा तो प्रकाश वापस आ गया। श्रीप्रकाश को पैसा-पावर और सत्ता चाहिए थी, इसलिए उसने बिहार के सबसे बड़े बाहुबली सूरजभान सिंह से हाथ मिला लिया। ये बात हरिशंकर तिवारी को पसंद नहीं आई और यहीं से मनमुटाव शुरू हुआ लेकिन श्रीप्रकाश ने इसी दौरान एक ऐसा काम कर दिया जो हरिशंकर कभी नहीं कर पाए। श्रीप्रकाश शुक्ला ने १९९७ में महाराजगंज के बाहुबली विधायक वीरेंद्र प्रताप शाही की लखनऊ शहर के अंदर गोली मारकर हत्या कर दी। अफवाहों के बाजार में पहुंचे तो यह कि यह हत्या हरिशंकर तिवारी के मन का काम था लेकिन कुछ लोग यह कहने से भी बाज नहीं आते की सबसे ब़ड़ा डॉन बनने की चाहत में श्रीप्रकाश ने ऐसा किया। बीरेंद्र शाही की हत्या के बाद प्रकाश शुक्ला की नजर उस चिल्लूपार विधानसभा सीट पर थी जहां से वह विधायक बनना चाहता था, सूत्रों की मानें तो इसके लिए वह हरिशंकर तिवारी की सुपारी भी चबाने को तैयार था। हरिशंकर तिवारी ९१ साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी अंतिम यात्रा में बड़हलगंज की जनता ने सड़कों पर आकर अभिवादन किया।