रायगढ़ । आदिवासियों की हिमायती बनने का दंभ भरने वाली सरकार में ऐसे बिल्डरों के हाथ राजस्व विभाग खेल रहा है, जो खुद ही आदिवासियों की जमीनें हड़पने के काम में लगे हैं। राजस्व मंडल ने एक आदिवासी महिला की जमीन अनिल केडिया के चंगुल से छीनकर वापस लौटाने का आदेश दिया था। राजस्व विभाग इसका पालन करने के बजाय उस आदिवासी जमीन के खसरा नंबरों को ही मिटाता रहा।
अनिल केडिया ने पंकज अग्रवाल के साथ भागीदारी में कृष्ण वाटिका कॉलोनी के दो फेस बना लिए हैं। अब इसी कॉलोनी की सडक़ को दिखाकर कृष्णा नेक्स्ट कॉलोनी की नींव रख दी है। अनिल केडिया और पंकज अग्रवाल ने वार्ड 47 ग्राम गोवर्धनपुर में खसरा नं. 9/2/1, 9/2/2, 9/4/1 और 9/4/2 कुल रकबा 1.776 में कॉलोनी विकास अनुमति ली है। इस जमीन को खसरा नंबर 15000 के रूप में बदल दिया गया है। यह जमीन पूर्व में आदिवासी कृषक लक्ष्मण सिदार पिता हरिराम सिदार के नाम पर थी। आदिवासी से गैर आदिवासी जमीन क्रय की अनुमति का आदेश 22 मई 2020 दिया गया था।
यह जमीन अनिल केडिया और पंकज ने खरीदी थी। इसके कुछ समय बाद जमीन की रजिस्ट्री अपनी ही पार्टनरशिप फर्म केशव टाउनशिप के नाम पर की गई। अब राजस्व मंडल के आदेश की बात करें तो खसरा क्रमांक 9/6 व खसरा क्रमांक 32/20 कुल रकबा 1.113 हे. भूमि आदिवासी महिला धनमती उरांव को शासन ने आवंटित किया था। उक्त भूमि को एक गैरकानूनी आदेश के आधार पर दो गैर आदिवासी जमीन कारोबारियों ने क्रय कर लिया था। राजस्व मंडल में सांठगांठ कर आदिवासी जमीन खरीदने की अनुमति ले ली। 2010 में पारित इस आदेश को त्रुटिपूर्ण मानकर राजस्व मंडल ने 2015 में निरस्त कर दिया था। भूमि को पुन: आदिवासी महिला को वापस करने का भी आदेश दिया था। अब यह दोनों खसरा नंबरों का पता नहीं चल रहा है। संभव है कि यह जमीन भी इन सात सालों में राजस्व विभाग के चमत्कार से खनं 15000 में ही समाहित हो गई हो।
बेहद शातिर तरीके से खेल रहा बिल्डर -कब्रिस्तान को भी रौंदने के बाद जिस बिल्डर का कोई बाल भी बांका नहीं कर सका, उसके हौसले बुलंद होंगे ही। सोचिए कि जिस आदिवासी जमीन को वापस करने का आदेश 2015 में हो चुका है, उस भूमि को अनिल केडिया के नाम कराने के लिए राजस्व विभाग के ही कई कर्मचारी ही साथ आए होंगे। कृष्णा ग्रीन जिस जमीन पर बन रही है, उसमें कई रहस्य दफन हैं।
आदिवासी जमीनों की लगती थी बोली -पिछले कुछ वर्षों में रायगढ़ जिले में जितनी आदिवासी जमीनें बेचने की अनुमति दी गई है, उतनी तो पिछले 20 साल में नहीं बिकी। कारोबारियों ने इसे एक व्यापार बना लिया था जिसमें आरआई, पटवारी से लेकर तहसीलदार एसडीएम तक शामिल थे। किसी भी कीमत पर आदिवासी जमीन बेचने की अनुमति देने का अभियान चलाया गया। अफसरों ने धड़ाधड़ आदेश पारित किए। कई आदिवासी भूमिहीन हो चुके हैं। उनकी जमीनें जिन्होंने खरीदीं, वह किसी और को पलटी की जा चुकी हैं।