तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।
भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए ! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रों ! पूर्व कथा प्रसंग में हमने रुक्मिणी हरण की कथा सुनी। भगवान ने शत्रु राजाओं के सिर पर अपने पैर रखते हुए रुक्मिणी का हाथ पकड़कर रथ में बैठाया और चल दिए। विपक्षी राजा मुँह देखते ही रह गए।
आइए ! अब आगे स्यमंतक मणि की कथा प्रसंग में चलते हैं–
स्यमंतक मणि की कथा
सत्राजित सूर्य भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। उससे प्रसन्न होकर सूर्य भगवान ने उसको स्यमंतक मणि दी थी। स्यमंतक मणि की यह विशेषता थी कि वह प्रतिदिन दो सौ ग्राम सोना दिया करती थी। जहाँ उस मणि का निवास होता वहाँ कभी भी महामारी, उपद्रव या कोई अशुभ घटना नहीं होती थी। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन ने उस मणि को अपने गले में धारण किया और शिकार खेलने जंगल में चला गया। वहाँ एक शेर ने उसको मार दिया और मणि लेकर पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि ऋक्षराज जांबवान ने उसे मार डाला और स्यमंतक मणि अपने बच्चो को खेलने के लिए दे दिया। अब प्रसेन के न लौटने से सत्राजित को बहुत दुख हुआ। वह कहने लगा कि श्रीकृष्ण ने ही उसके भाई को मार डाला होगा और मणि ले ली होगी। जब भगवान ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर पर लगा है तब उसे धोने के उद्देश्य से प्रसेन को ढुढ़ने वन में चल दिए। वहाँ उन्होंने देखा कि जांबवान के बच्चे स्यमंतक मणि के साथ खेल रहे थे। ऋक्षराज जांबवान ने कृष्ण को पहचान लिया। उनको रामवातार की पूरी घटना याद आ गई। भगवान के चरण पकड़ लिए और अपनी पुत्री जांबवती को स्यमंतक मणि के साथ समर्पित कर दिया। भगवान कृष्ण को पत्नी जांबवती के साथ गले में स्यमंतक मणि धारण किए हुए द्वारिका वासियों ने देखा तो आनंद में डूब गए। उसके बाद भगवान ने सत्राजित को उग्रसेन के राज दरबार में बुलाया और मणि प्राप्त होने की पूरी कथा सुनाई और वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित को अपने किए पर पछतावा हुआ। उसने भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्तुति की और अपनी रत्न के समान कन्या सत्यभामा और स्यमंतक मणि भगवान को समर्पित कर अपने अपराध का मार्जन किया। इस प्रकार भगवान ने विधिपूर्वक सत्यभामा का पाणि ग्रहण किया। इस तरह भगवान ने सूर्य पुत्री कालिंदी, मित्रवृंदा, सत्या, भद्रा, और लक्ष्मणा आदि कन्याओं के साथ विवाह किया।
भौमासुर का वध सोलह हजार एक सौ आठ कन्याओं के साथ विवाह
शुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित! भौमासुर पृथ्वी का पुत्र था उसको नरकासुर भी कहते हैं। उसने देवताओं का सब कुछ छिन लिया था। दुखी होकर देवराज इन्द्र द्वारिका पूरी मे कृष्ण के पास आए और अपनी व्यथा सुनाई। भगवान ने बड़ी कठिनाई से उसकी राजधानी प्रागज्योतिषपुर में प्रवेश किया। वहाँ मूर नामक दैत्य से उनका सामना हुआ मूर दैत्य बड़ा ही अत्याचारी और पराक्रमी था। भगवान ने उसका वध किया इसीलिए उनका नाम मुरारी पड़ा। अब भौमासुर ने देखा कि कृष्ण के चक्र और बाणों से हमारी सेना संहार हो रहा है तब उसने क्रोधाग्नि में जलते हुए भगवान के ऊपर शतघ्नी नामक शक्ति चलाई। प्रभु ने अपने तीक्ष्ण बाणों से शतघ्नी को काट डाला। अब भौमासुर त्रिशूल लेकर बड़े वेग से दौड़ा अभी वह त्रिशूल छोड़ भी नहीं पाया था कि कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से हाथी पर बैठे हुए भौमासुर का सिर काट डाला।
सकुंडलम चारु किरीट भूषणम् बभौ पृथिव्याम् पतितम् समुज्ज्वलत
वह जगमगाते हुए किरीट और कुंडल सहित भूमि पर गिर पड़ा। उसके सगे संबंधी हाय-हाय करने लगे। देवताओं ने पुष्प वृष्टि की और भगवान की स्तुति करने लगे। पृथ्वी बहुत प्रसन्न हुई उसने श्रीकृष्ण के गले में वैजयंती माला पहना दी। और स्तुति की—
नम; पंकजनाभाय नाम; पंकज मलिने
नम; पंकज नेत्राय नमस्ते पंकजाघ्रए॥
त्वं वै सिसृक्षु रज उत्कटम प्रभो
तमो निरोधाय बीभर्ष्य संवृत;
स्थानाय सत्वं जगतो जगत्पते
काल; प्रधानम पुरुषो भवान पर;॥
इसी बात को ध्यान में रखते हुए मूर्धन्य संस्कृत कवि बाण भट्ट ने कादम्बरी के मंगलाचरण में स्तुति करते हुए कहते हैं—-
रजोजुषे जन्मनि सत्ववृत्तये स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे।
अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः।।
अब कृष्ण ने भौमासूर के विशाल महल में प्रवेश किया। वहाँ उसने बलपूर्वक सोलह हजार राज कन्याओं को रखा था। कृष्ण को देखकर सब मुग्ध हो गईं। भगवान ने सबको मुक्त किया और अपने माता-पिता के घर जाकर विवाह करके गृहस्थी बसाने की सलाह दी। राजकुमारियों ने निवेदन किया, हे प्रभो! अब हमें कौन स्वीकार करेगा? हम सबने आपको ही अपने पति के रूप में वरण किया है। तत्पश्चात भगवान ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण कर एक ही साथ विधि-विधान से सभी राजकुमारियों का पाणि ग्रहण किया। उनका मनोरथ पूर्ण किया।
शेष अगले प्रसंग में —-
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ———-
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।